छात्रों में खत्म हो रही पढ़ने की आदत
स्कूलों में श्रेष्ठ साहित्य और जीवनियों की घोर उपेक्षा की जा रही है
ब्रह्मानंद ठाकुर
आज के ठाकुर का कोना की शुरुआत मैं अपनी आप बीती से कर रहा हूं। वह साठ का दशक था। मैं अपने गांव के हाईस्कूल मे 9वीं कक्षा में पढ़ता था। तभी पहली बार मुझे कृष्ण चंदर का उपन्यास ‘रेत का महल’ पढ़ने का मौका मिला। यह किताब मुझे जिस व्यक्ति ने दी थी, वे रिश्ते में फूफा लगते थे। मेरे पिताजी कि ममेरी बहन उनसे व्याही हुई थी। फूफा जी खादी भंडार में नौकरी करते थे। पढ़ने-लिखने के शौकीन थे। उनका घर मेरे घर के पास ही था। उनका एकमात्र पुत्र रवीन्द्रनाथ ठाकुर रवि मुजफ्फरपुर शहर में रहकर हिंदी से स्नातकोत्तर की पढ़ाई कर रहे थे। घर पर उनकी काठ की आलमारी में ढेर सारी किताबें थीं। यह किताब फूफा जी ने उसी आलमारी से निकाल कर मुझे पढ़ने को दिया था। तब मेरे किशोर मस्तिष्क में साहित्य की समझ नहीं थी। फिर भी कहानी अच्छी लगी। बाद में उन्होंने उस समय के चर्चित नानावती- आहूजा हत्याकांड पर लिखी पुस्तक पढ़ने को दी। फिर तो पढ़ने की मेरी आदत-सी लग गई। उसी दौर में हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में बेनीपुरी की कहानी कहीं धूप, कहीं छाया पढ़ने के बाद मेरे मन मस्तिष्क में सामंती शोषण-उत्पीडन के प्रति जो घृणा भाव पैदा हुआ था वह आज भी मुझे उद्वेलित करता है। गोर्की, लुशुन, टाल्सटाय, शरतचन्द्र, बंकिमचंद्र, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, प्रेमचंद के साहित्य ने मुझमें एक नई दृष्टि पैदा की।
बाद के दिनों में बेनीपुरी जी की तमाम पुस्तकें पढ़ने का मौका मिला। पूंजीवादी शोषण- उत्पीड़न को जड़मूल से समाप्त करने की चाहत यहीं से पैदा हुई। तब पुस्तकें पढ़ने की मेरी जो आदत बनी, वह अबतक बनी हुई हे। इसी आदत ने मुझे अपना निजी पुस्तकालय स्थापित करने को प्रेरित किया। आज मेरे पुस्तकालय में विभिन्न लेखकों की लगभग डेढ़ हजार किताबों और साहित्यिक पत्रिकाओं का संग्रह है। यह सब इसलिए बताना पड़ रहा है कि आज छात्रों में पढ़ने की आदत बिल्कुल नहीं है। यह स्थिति चिंताजनक इसलिए है कि नई पीढ़ी में सूक्ष्म मानवीय संवेदनाएं और मूल्यबोध पैदा करने के लिए बचपन से ही अच्छा साहित्य पढ़ना जरूरी होता है। महापुरुषों की जीवनी पढ़ना भी आवश्यक है। आज स्कूलों में श्रेष्ठ साहित्य और जीवनियों की घोर उपेक्षा की जा रही है। मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग के बच्चों में पाठ्यक्रम के अलावे दूसरे विषयों को पढ़ने में कोई रुचि नहीं है।
आज टेलिविजन, कम्प्यूटर और मोबाईल की लत पढ़ने की आदत को नष्ट कर रही है। अभिभावक अपने बच्चों को इस भय से कहानियां एवं अन्य किताबें पढ़ने नहीं देते कि इससे बच्चे का ध्यान अपने कैरियर से हट जाएगा। जो महान चरित्र छात्रों का आदर्श होना चाहिए उनसे छात्र- युवा अपरिचित रह जाते है। इसका दुष्परिणाम स्पष्ट देखा जाने लगा है। परिवार में लगाव और भावनात्मक सम्बंधों का अभाव, सामाजिक सम्बन्धों का हृास, और कैरियर बनाने के चक्कर में असहनीय तनाव आदि युवा पीढ़ी में असंतोष का कारण बन गया है। उद्देश्यहीन दम्भ, अमानवीय क्रूरता और निर्दयता चरम पर है। यही कारण है कि किशोरों में आत्महत्या, बच्चों में आपराधिक प्रवृत्ति का आश्चर्यजनक वृद्धि हो रही है।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)