निरपेक्ष नहीं है राष्ट्रवाद की अवधारणा
विरोध को राजद्रोह या गैर राष्ट्रवाद कहना अनुचित
ब्रह्मानंद ठाकुर
राष्ट्र और राजसत्ता दोनों अलग-अलग है। राष्ट्र कभी नहीं बदलता जबकि शासन और सत्ता व्यवस्था बदलती रहती है। जो शासन व्यवस्था देश की आम जनता के हितों— स्वास्थ्य, शिक्षा, चिकित्सा और रोजी-रोजगार की जरूरतें पूरी न कर सके। भय, भूख और भ्रष्टाचार से मुक्ति नहीं दिला सके। जिस शासन व्यवस्था में जनता के खून-पसीने की गाढ़ी कमाई को कुछ मुठ्ठी भर लोगों के उपयोग को प्रश्रय देने लगे तो ऐसे में शासन के प्रति असहमत होना स्वाभाविक है। देखा जाए तो इस तरह के छद्म राष्ट्रवाद और देशभक्ति के नाम पर असहमति के स्वर को कुचलने के प्रयासों के विरोध को राजद्रोह या गैर राष्ट्रवाद कहना सर्वथा अनुचित है। सभी को लोकतंत्र में अपनी बात कहने का अधिकार है। राष्ट्र भक्ति का अर्थ यह भी नहीं है कि किसी राष्ट्र पर शासन करने वाले की भी भक्ति की जाए। किसी भी वर्ग विभाजित समाज में, जैसा कि हमारा समाज है, राष्ट्रीयता की भावना शोषक और शोषित वर्ग के लिए समान नहीं हो सकती। क्योंकि दोनो वर्गों का हित एक-दूसरे के सर्वथा प्रतिकूल होते है। शोषित वर्ग जब राजसत्ता के उन नीतियों, कार्यक्रमों का विरोध करता है, जिससे उसके वर्ग हित को नुक्सान पहुंचाने वाला है तो उसे राष्ट्रीय हित के विपरित नहीं माना जाना चाहिए। हाँ आज देश में राष्ट्रीयता की एक नई परिभाषा दी जा रही है जिसका सीधा मतलब है या तो राजसत्ता और उसकी नीतियों-कार्यक्रमों का समर्थन कर राष्ट्रवादी का तमगा हासिल करिए या राष्ट्र विरोधियों की जमात में शामिल हो जाइए।। यहां असहमति की कोई गुंजाइश नहीं है। अपने देश से बेइंतहा प्यार करने वाला कोई व्यक्ति उस देश पर शासन करने वाले को भी प्यार करे यह बिल्कुल सम्भव नहीं है। इस आधार पर उसे गैर राष्ट्रवादी करार देना उचित नहीं है।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)