प्रेमचंद की दृष्टि में पूंजीवादी अर्थनीति

पूंजीपति और उनकी अर्थनीति

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ब्रह्मानंद ठाकुर
बीते साल नवम्बर में जब बीमार हुआ तो डाक्टर ने अगले कुछ महीनों तक मोटरसाइकिल चढ़ने से मना कर दिया। अभी तक डाक्टर की सलाह मानकर चल रहा हूं। लिहाजा कहीं आना-जाना नहीं होता है। पढ़ता-लिखता रहता हूं और खेत -खलिहान घूम आता हूं। आज प्रेमचंद का विविध प्रसंग, भाग-2 पढ़ रहा था। इसमें प्रेमचंद जी का 9 अक्टूबर,1933 का लिखा एक लेख है। शीर्षक है -खेती का पैदावार कम करने का आयोजन। वे लिखते हैं यूरोप के अर्थशास्त्रियों ने बड़ा आसान नुस्खा ढूंढ निकाला है। बस जिस चीज का दाम गिर जाए, उस चीज की पैदावार कम कर दो। गेहूं का दाम गिर गया तो गेहूं उत्पादक देशों ने गेहूं सम्मेलन कर लिया। उस सम्मेलन में तय हुआ कि 15 फीसदी गेहूं की खेती कम कर दी जाए। इसी तरह अन्य उपभोक्ता सामग्रियों का दाम गिरने पर उसके उत्पादन में कमी की जाने लगी। पूंजीपतियों के लिए सस्ती काला, जहरीला सांप है। वह तो महंगाई चाहता है ताकि थोड़ी चीजें देकर वह थैलियां भर लें। इसके विपरीत काश्तकार चाहता है कि खेतों में इतना अनाज पैदा हो कि वह उसे दोनों हाथ लुटावे। मगर जिसने खलिहान का सारा अनाज अपने बाजारों और गोदामों में भरकर रखा है, वह प्रातः काल उठकर यही कामना करता है कि भाव तेज हो। आज इस सस्ती में गरीबों को भोजन नहीं मिल रहा है। सस्ती का कारण यह नहीं है कि फसल अच्छी हो रही है, बल्कि खरीदने को पैसे नहीं हैं और लोग भूखों मर रहे हैं। खाने- पीने की चीजों की उपज घटा कर व्यापारियों को नफा तो खूब होगा, मगर जब सस्ती में अधिकांश लोग भूखों मर रहे हैं तो महंगी में उनकी क्या दशा होगी, यह हमारे अर्थशास्त्री नहीं सोचते। लोग मरते हैं, मर जाएं, पृथ्वी का बोझ और हल्का हो जाएगा। संसार में यह जो तबाही आई हुई है, इसका कारण पूंजीपति और उनकी अर्थनीति है। समस्त संसार को उन्हीं के पापों का प्रायश्चित करना पड़ रहा है। यह साम्राज्यवाद की विपत्ति, जिससे संसार त्राहि-त्राहि कर रहा है, इन्हीं कुबेर के गुलामों की बुलाई हुई है। आज जो बड़ी-बड़ी लड़ाइयां हो रही हैं, जिसमे खून की नदियां बह जातीं हैं, इनका जिम्मेवार भी यही लक्ष्मी के उपासक हैं। संसार इनके लिए भोग का क्षेत्र है। वे संसार के स्वामी हैं, पार्लियामेंट और सिनेटर -सिंडीकेट इनके खिलौने हैं।
अब कुछ अपनी बात। प्रेमचंद जी ने जब यह लिखा तब हमारा देश गुलाम था। आज हमारा मुल्क आजाद हैं लेकिन व्यवस्था वही पूंजीवादी है। पूंजीपतियों का हित साधन करने वाली। पूंजीवादी व्यवस्था में उत्पादन उपभोग के उद्देश्य से नहीं, मुनाफे के उद्देश्य से किया जाता है। समाजवाद में उत्पादन जनता के उपभोग के लिए होता है। अगर इस भयावह संकट से निजात पाना है तो पूंजीवाद को जड़मूल से उखाड़ कर समाजवादी व्यवस्था कायम करनी ही होगी।क्योंकि समाजवाद ही मनुष्य को सम्मानजनक जिंदगी जीने का अवसर देते हुए युद्ध की विभीषिका से निजात दिला सकता है।

 

Capitalist economy
ब्रह्मानंद ठाकुर

 

 

(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)
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