दुकानें सजी हैं जवान स्त्रियों की तरह

फ़ैशन का यह बाज़ार पूरी दुनिया में खुल गया

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डॉ योगेन्द्र
जिन युवाओं को खाने पीने की कमी नहीं है और जिनके माँ बाप अकूत पैसा कमाते हैं, वैसे खाये पीये अघाये युवा दुनिया में क्या कर रहे हैं? यह जानना दिलचस्प होगा। इनके लिए समस्या रोज़गार नहीं है, न ही इज़राइल-फ़िलिस्तीन हमले हैं और न ही सड़कों पर भूख से बिलबिलाते लोग हैं। ऐसे युवा लंदन और न्यूयार्क जैसे महानगरों में चेहरे चमकाने वाली खुली इंडस्ट्री में फ़ेस वर्कआउट करवाते हैं। दुनिया में एक महान लोभी वर्ग पैदा ले लिया है, जो इस ताक में रहते हैं कि कैसे पैसा कमाया जाय? वे समाज का सर्वेक्षण करवाते हैं कि किस वर्ग को किस काम में रुचि है। जब उन्हें पता चला कि युवा अपने फ़ेस को चमकता हुआ देखना चाहते हैं तो उसने दुनिया के बड़े बड़े महानगरों में फ़ेस चमकाने की इंडस्ट्री खोल दी। अकेले अमेरिका में यह इंडस्ट्री 50 हज़ार करोड़ की है। इस इंडस्ट्री में फ़िटनेस स्टूडियो होता है। युवा वहाँ रिक्लाइन चेयर पर बैठते हैं और उनकी गाल पर रिक्वशी वॉल से प्रहार करते हैं। साथ ही उँगलियों की मदद से त्वचा और मांसपेशियों का जमकर मसाज करते हैं, जिससे उनकी गाल गर्म हो जाय। गाल का ब्लड सर्कुलेशन सुधारने के लिए कार्डियो सेशन का भी इंतज़ाम होता है। इसके लिए युवा एक सेशन में 10-5 हज़ार रूपये फ़ीस अदा करते हैं।
फ़ैशन का यह बाज़ार पूरी दुनिया में खुल गया है। फ़ैशन डिज़ाइनिंग अब एक महत्वपूर्ण पाठ्यक्रम हैं। उच्च वर्ग के लोग नये नये फ़ैशन का आविष्कार करते हैं और मध्य वर्ग उसकी नक़ल करता है। आविष्कार और नक़ल में पूरी दुनिया व्यस्त हैं। ज़्यादा से ज़्यादा उत्पादन करो। ग़ैर ज़रूरी चीजों को भी विज्ञापन के माध्यम से ज़रूरी बनाओ और मध्य वर्ग के पैसे को जेब से खींच कर अपनी जेब भरो। मशहूर आलोचक कर्मेंदु शिशिर ने फ़ेसबुक पर लिखा है कि वे अपनी बेटी के परिवार के साथ मॉल पहुँचे। उन्हें मॉल में इतनी तकलीफ़ हुई कि उन्हें लगा कि वे चीख पड़ेंगे। उसके बाद अपने पोस्ट पर कुमार अंबुज की कविता उद्धृत करते हैं-
दुकानें अपनी मस्ती में थीं
और सजी हुई थीं जवान स्त्रियों की तरह
वहाँ लोग उठाये हुए थे बहुत सा सामान
“अभी कितना कुछ बचा हुआ है ख़रीदने के लिए”
ऐसा भाव उनके पसीने से लथपथ शरीर से टपक रहा था।
देश का एक हिस्सा पसीने से लथपथ बाज़ार दर बाज़ार घूम रहा है। वे ज़रूरी और ग़ैर ज़रूरी सामान को ख़रीद कर अपना घर भर कर शान बघार रहे हैं। कुमार अंबुज की कविता कज्जल पानी की तरह अपना अर्थ बिखेरती है
जेरेमी वर्कमैन ने एक शानदार डोक्यूमेंट्री बनायी है- द वर्ल्ड बिफोर योर फ़ीट। जेरेमी ने 2010 से पैदल चलना शुरू किया और 2018 तक वे पाँच सौ किलोमीटर चले। वे शहरों और नगरों का अवलोकन करते चलते हैं। कार या रेल में या हवाई यात्रा में जिन चीजों को आँखें देख नहीं पातीं, वे उसका दृश्याकंन करते हैं। हम फ़ैशन, सुविधाएँ और कृत्रिम अहंकार के कारण अपनी धरती छोड़ते जा रहे हैं। हम ऊपर-ऊपर चलने लगे हैं, नीचे देखते ही नहीं। जो दुनिया
हमारे पाँव के नीचे है। वह एक मुकम्मल दुनिया है। कामायनी में कभी जयशंकर प्रसाद ने लिखा था- ‘अपने में सबकुछ भर कैसे व्यक्ति विकास करेगा, यह एकांत स्वार्थ भीषण है, अपना नाश करेगा।’ कवि की चेतावनी तो चेतावनी है। दुनिया माने या न माने, लेकिन उनकी चेतावनी में बहुत दम है।

 

shops are all decorated like women
Dr. Yogendra
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए The Dialogue उत्तरदायी नहीं है।)
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