ब्रह्मानंद ठाकुर
कुछ महीने बाद बिहार विधानसभा का चुनाव होने वाला है। विभिन्न राजनीतिक दल जातीय समीकरण साधने की जुगत में लग गये हैं। वैसे राजनीति में जातीय समीकरण की बात कोई नई नहीं है। आजादी के बाद से ही जातिवाद इस देश के लिए नासूर बना हुआ है। पूरा देश जातिवाद की गिरफ्त में हैं। इस जाति प्रथा की शुरुआत कैसे और किन परिस्थितियों में हुई, इसे समझने के लिए इतिहास का पन्ना उलटना जरूरी है। जाति प्रथा का उदय प्राचीन भारत में श्रम विभाजन के आधार पर हुआ था। समाज के विकास के लिए तब यह श्रम विभाजन जरूरी था। बाद में सामंतवादी व्यवस्था के दौरान तत्कालीन शासकों ने रोजगार की प्रकृति के आधार पर जातियों की एक प्रथा चलन में ला दिया। बाद मे यह प्रथा बड़ी कठोर और अपरिवर्तनीय बना दी गई। सामंती व्यवस्था में जो जातियां दास कर्म में लगी हुईं थीं, उन्हें अन्य जातियों से हीन माना गया। चूंकि वे मिहनतकश लोग थे इसलिए उन्हें आर्थिक शोषण के साथ-साथ सामाजिक और सांस्कृतिक उत्पीड़न का शिकार बनना पड़ा। इतना ही नहीं, जो जातियां निचले पायदान पर थीं, उनके साथ ऊंची जाति वालों द्वारा अपमानजनक व्यवहार किया जाने लगा। उन्हें अछूत समझा गया। मध्यकालीन साहित्य में समाज में इनकी स्थित बड़ी दयनीय बताई गई है। ऐसे में भारत का आजादी आंदोलन जो औपनिवेशिक गुलामी और सामंती व्यवस्था के विरुद्ध एक बड़ा संघर्ष था, यदि उस आंदोलन को सही रूप से और जनवादी सिद्धांत के आधार पर संचालित किया गया होता तो इस जातिवाद को खत्म किया जा सकता था। लेकिन दुर्भाग्यवश उस आंदोलन का नेतृत्व समझौतावादी नेताओं के हाथ चला गया। आजादी आंदोलन से पहले ही पूंजीवादी व्यवस्था संकटग्रस्त हो चुकी थी। समझौता परस्त नेतृत्व इसी संकटग्रस्त पूंजीवाद को भविष्य में भी बनाए रखना चाहता था। इस समझौतावादी धारा ने अपने वर्ग हित में समाज के जनवादीकरण की घोर उपेक्षा कर दी। जबकि गैर समझौतावादी धारा इसके विरोध में थी। परिणाम यह हुआ कि हमें राजनीतिक रूप से आजादी तो जरूर मिली किंतु, सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से हम क्षेत्र, धर्म, जाति, भाषा और नस्लों में बंटे रह गये। कालांतर में सरकार की फूटपरस्त नीतियों ने इसे और उग्र रूप प्रदान कर दिया। आज पूंजीवादी राजसत्ता शोषित-पीड़ित जनता के बढ़ते असंतोष से खुद को बचाने के लिए जाति, धर्म, भाषा और नस्लों के आधार पर आपस में फूट डाल कर अपना वर्गीय स्वार्थ साध रही है। राजनीतिक दल अपना वोट बैंक बढ़ाने के लिए जातिवाद का घिनौना खेल, खेल रहे हैं। शोषित पीड़ित जनता को यह समझने की जरूरत है कि उनकी समस्याओं की जड़ यह निर्मम पूंजीवादी व्यवस्था है। इसके खिलाफ जनता का एकजुट संघर्ष और सामाजिक -सांस्कृतिक आंदोलन को सफल बना कर ही ऐसी तमाम समस्याओं से छुटकारा मिल सकता है।

(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)