आदतें और रामभद्राचार्य

रामभद्राचार्य का भागवत को चुनौती

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डॉ योगेन्द्र
सुबह-सुबह जब रिम्स में टहल रहा था तो एक मित्र का फोन आया। आजकल फोन लगभग साइलेंट मोड में रहता है। भूले भटके ही कोई फोन आता है। मोबाइल बजी तो मैंने स्क्रीन देखी। वर्षों पुराने मित्र का फोन था। उन्होंने बताया कि वे अब तक कंबल में दुबके हैं। मैंने प्रत्युत्तर दिया- अपना-अपना भाग्य है! फिर उन्होंने दिवंगत मित्र की कविताओं की चर्चा की। इसके अलावे एक छोटी सी कहानी सुनाई। उन्होंने कहा कि फुटबॉल का एक मैच चल रहा था। दर्शकों में एक रिटायर्ड फुटबॉलर भी मैच देख रहा था। मैच में दोनों ओर के खिलाड़ी गोल करने की पूरी कोशिश कर रहे थे, लेकिन गोल हो ही नहीं रहा था। रिटायर्ड फुटबॉलर बैठे-बैठे खींज रहा था। यह भी कोई बात हुई कि मैच हो और गोल न हो। दर्शक तो गोल देखने आता है। उस पर फुटबॉलर! धीरे-धीरे उसके पाँव थिरकने लगे। फिर उसमें गति आने लगी। पाँव चलने को तत्पर हो गए। फुटबॉलर को दर्शकों के सिर फ़ुटबॉल की तरह दिखने लगे। फ़ुटबॉलर के पांव दर्शकों के सिर को फुटबॉल मान कर चलने लगे। दर्शकों में भगदड़ मच गयी।
दरअसल हम सब रिटायर्ड फुटबॉलर की तरह हैं। अपनी-अपनी आदतों के शिकार। जिंदगी जीते हुए हम सबने एक आदत विकसित कर ली है। खाने, पहनने, खेलने और जीने की आदत। मछली पानी के बिना नहीं जी सकती। मनुष्य अपनी आदतों के बिना नहीं जी सकता। मैं जिस रास्ते से टहलने के लिए रिम्स जाता हूँ, उस रास्ते के किनारे मछलियाँ बिकती है। सुबह-सुबह बर्फ भरे डिब्बों में बेहोश मछलियाँ होती हैं। उन्हें बर्फ से निकालकर पुनः पानी में डाल कर होश में लाते हुए देखता हूँ। ग्राहक को जिन्दा मछलियाँ आकर्षित करती है। जिंदा मछलियों को निकाल कर हंसुए पर रेत दिया जाता है। मनुष्य को भी अगर उनकी आदतों से बाहर निकालने की कोशिश होती है तो वह छटपटाता है। अगर किसी आदमी को बचपन से सिखाया जाता है कि दूसरे का धर्म फालतू है। उसमें अमुक-अमुक दुर्गुण है तो बड़े होने के बाद भी वह उस धर्म से नफरत करता है। संभव है कि बड़े होने के बाद वह खुद को छिपा लेने में पारंगत हो गया हो, लेकिन अंदर में कट्टरता शेष रह जाती है और वह कभी भी भड़क सकती है। रामभद्राचार्य नामक एक तथाकथित धार्मिक हैं जो अपने को हिंदू धर्म का बड़ा धर्माचार्य मानते हैं। जो कुछ वे बोलते हैं, उसमें धर्म की बातें कम ही रहती हैं। वे मूलतः धर्म की राजनीति करते हैं। हिन्दुओं में कौन सा हिन्दू श्रेष्ठ हैं, इसकी तलाश करते रहते हैं। उनके परम ज्ञान की हालत यह है कि उन्होंने ब्राह्मणों में भी श्रेष्ठ ब्राह्मण की गणना कर रखी है। जब आरएसएस के चीफ मोहन भागवत ने कहा कि हर मस्जिद में शिवलिंग नहीं ढूँढनी चाहिए तो रामभद्राचार्य ने उन्हें चुनौती दे डाली और कहा कि मोहन भागवत धर्माचार्य नहीं हैं। यानी धर्म के मामले में मोहन भागवत की नहीं, मेरी चलेगी। इसका अप्रत्यक्ष संदेश यह भी है कि हर मस्जिद में शिवलिंग ढूँढने का काम पवित्र काम है। ऐसे ढकोसलेबाज और पाखंडी को धर्म का ज्ञान कम ही होता है। दरअसल ऐसे लोगों का प्रशिक्षण ही गलत ढंग से दिया जाता है। नतीजा होता है कि वे आदतों में घिर जाते हैं। नफरत उनकी पूंजी होती है और इससे पूंजी जमा करते हैं। समाज में बहुत से ऐसे लोग होते हैं, जिन्हें रामभद्राचार्य के धर्म पसंद आते हैं। धर्म को धंधा बनाने की जिनकी आदत हो गई, वे कभी धार्मिक नहीं हो सकते।

Rambhadracharya challenges Bhagwat
डॉ योगेन्द्र

 

(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)
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