कभी ये हुनर गांव की विशिष्ट पहचान हुआ करती थी

दैनिक जरूरतों के लिए पूरी तरह बाजार पर निर्भर

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ब्रह्मानंद ठाकुर
आधी सदी पहले तक हमारे गांव की अपनी परम्परा, रीति-रिवाज और गंगा-यमुनी संस्कृति की कोई सानी नहीं थी। पुरुष-महिला सभी अपने हुनरमंद हाथों से अपनी दैनिक जरूरतों की चीजें स्वयं तैयार करते थे। फल-सब्जी संरक्षण में तो गांव की महिलाओं को महारथ हासिल था।
जब आम का मौसम आता, महिलाओं की व्यस्तता काफी बढ़ जाती थी। शुरुआत आम के टिकोले से होती थी। वैसाख- जेठ महीने में हर घर में आम के टिकोले से खटाई बनाई जाती थी। इसे बनाने और सालो भर संजो कर रखने का अपना खास तरीका था। टिकोले का छिलका उतार, उसे दो-दो फांक करने के बाद कुछ देर के लिए साफ पानी में छोड दिया जाता। कुछ समय बाद उसे पानी से निकाल कर चटाई पर सूखने के लिए रख दिया जाता था। जेठ महीने की चिलचिलाती धूप में एक सप्ताह तक सूखाने के बाद उसे मिट्टी की हांडी में रख साफ कपड़े से हांडी का मुंह बांध दिया जाता था। इस खटाई का उपयोग सिलवट पर लोंढे से पीस कर सालो भर उपयोग किया जाता था। खटाई जब कुछ खास सब्जियों में डाली जाती थी तो सब्जी का स्वाद काफी बढ़ जाता था। अक्सर बैंगन की सब्जी में इस खटाई का उपयोग होता था। सब्जी के अभाव में खटाई की चटनी बनाई जाती थी। अब तो बाजार में महंगे दाम पर डिब्बा बंद आमचूर बिकने लगा है। आम से तरह-तरह के अंचार बनाए जाते थे। पके हुए आम का अमौट बनता था। पके हुए आम को एक बड़े बर्तन में निचोड़ लिया जाता। फिर चौकी या खाट पर साफ कपड़ा बिछा कर आम के रस को उस पर फैला दिया जाता था। कई दिनों तक सूखने के बाद उसे भी हांडी में सुरक्षित रख दिया जाता था। आम का सीजन खत्म होने के बाद इसी अमौट को लोग पानी में घुला कर रोटी या चिउरा के साथ बड़े चाव से खाते थे। कटहल, मिर्चाई, नीबूं और आंवले का अंचार हर घर में सालों भर उपलब्ध रहता था। मेरी दादी कच्चे आंवले को धो कर उसमें नमक और अजवाइन मिला कर मिट्टी की हांडी में रखती थी। कई दिनों तक उसे धूप में सुखाया जाता था। फिर हांडी में उसे सुरक्षित रख दिया जाता था। इसका उपयोग सालों भर किया जाता। खट्टा डकार, अपच, गैस एवं पेट सम्बन्धी अन्य बीमारी में इस आंवले का सुखौता रामबाण की तरह काम करता था। पीली सरसों की चटनी बनाने की विधि भी बड़ी नायाब थी। आम के सीजन में कच्चे आम के रस में सरसो को फुला कर उसे छाएदार जगह में सुखाया जाता। महिलाएं इसे काफी समय तक संजो कर रखतीं थीं।सिलवट्टा पर पिसी इस चटनी का स्वाद आम की चटनी का स्वाद लिए होता था। इसी सरसों को जब नींबू के रस में फुला देने पर चटनी बनाई जाती तो उसका स्वाद नींबू-सा होता था। नींबू की निमकी बनाने और उसे सालों भर सुरक्षित रखने का अपना विशिष्ट तरीका था। भिण्डी, करैला, फूलगोभी जैसी सब्जियों का सुखौता बनाना घरों में आम बात थी। प्रायः हर घर की महिलाएं अदौरी, तिलौरी, तिसिऔरी बनाने में सिद्धहस्त थीं। सिसकोहरा मिश्रित उड़द की दाल से बनी अदौरी को आलू, बैंगन या कद्दू की सब्जी के साथ पकाए जाने पर सब्जी का स्वाद काफी बढ़ जाता था। पर्व-त्योहारों के अवसर पर घरों में मिट्टी पुती दीवारों पर रंग-बिरंगी, सुरुचि पूर्ण आकृतियां बनाकर वे अपनी कलात्मक रुचि का परिचय देती थीं। मैं जब उन बीते दिनों का सिंहावलोकन करता हूं तो गांव की महिलाओं का यह हुनर अब दूर-दूर तक कहीं दिखाई नहीं देता है। तब वे ज्यादा पढ़ी-लिखी तो नहीं होतीं थी मगर यह हुनर उन्हें विरासत में हासिल हुआ था। माताएं अपनी बेटियों को विरासत के रूप में यह हुनर सिखलना अपना दायित्व समझती थीं। समय बीतने के साथ बाजार महिलाओं की इस हुनर को पूरी तरह निगल गया। आज हम खाने-पीने की हर छोटी-छोटी चीजों से लेकर अपने दैनिक जरूरतों के लिए पूरी तरह से बाजार पर निर्भर हो गये है।

 

Village women also depend on the market
ब्रह्मानंद ठाकुर
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)
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