व्यक्ति के हित से समाज का हित बड़ा होता है
व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा के कारण है पूंजीवादी व्यवस्था
ब्रह्मानंद ठाकुर
जब मैं ऐसा कहता हूं तो लोग मेरे कथन का प्रतिकार करते हुए अक्सर कहते हैं कि व्यक्ति से ही जब समाज का निर्माण होता है तो व्यक्ति हित से समाज का हित बड़ा कैसा होगा? ऐसे लोगों का मानना है कि व्यक्ति के हित से ही समाज का हित सम्भव है। यही है कुत्सित व्यक्तिवादी मानसिकता। इसी मानसिकता के कारण समाज आज गर्त में जा रहा है। यह बात मैं वर्तमान संदर्भ में कह रहा हूं। व्यक्ति आज समाज से इस कदर अलग-थलग हो गया है कि उसकी अपनी जरूरतें, उसका व्यक्तिगत हित, मान सम्मान ही सर्वोपरि हो गया है। उसे समाज की कोई चिंता नहीं है। यह स्थिति अकारण पैदा नहीं हुई है। इस संकटग्रस्त पूंजीवादी व्यवस्था ने अपने वर्ग हित में व्यक्ति को समाज से इस तरह अलग-थलग कर दिया है कि उसे समाज की तनिक भी चिंता नहीं है। यह स्थिति हम अपने आसपास भी देख सकते हैं, वशर्ते कि देखने और समझने की दृष्टि हो। इस क्षयोन्मुख पूंजीवाद ने व्यक्ति को आज ऐसा बना दिया है कि उसमें देश की बात तो दूर, अपने परिवार, अपने सगे सम्बंधियों और समाज के हित की कोई चिंता नहीं है। पिछले दिन डाक्टर से मिलने जाते हुए रास्ते में जो कुछ देखा, उसने मुझे आज यह सब लिखने के लिए प्रेरित किया है। मुख्य सड़क किनारे नाले का निर्माण किया जा रहा था। मजदूर काम पर लगे हुए थे। नाले में धराधर ईंटे जोड़ी जा रहीं थी। बिल्कुल घटिया ईंट और सफेद बालू। ऐसे में बालू में सिमेंट मिलाने का अनुपात क्या रहा होगा, समझना मुश्किल नहीं है। निर्माण स्थल पर काफी लोग, जो स्थानीय ही रहे होंगे, खड़े होकर चुपचाप सब कुछ होते देख रहे थे। जेहन में बीते दिनों पुल-पुलिया के गिरने, निर्माणाधीन भवनों के धराशाई हो जाने जैसी घटना की याद ताजा हो आई। यह बताना भी जरूरी लगता है कि 180 साल पूर्व निर्मित मुजफ्फरपुर के जिला स्कूल का भवन आज भी यथावत है। अब तो गांवों, शहरों में करोड़ों की लागत से बनने वाली सड़कें और भवन कुछ ही सालों में जर्जर हो जाती है। यह सब कुत्सित व्यक्तिवादी और व्यक्ति की आर्थिक महत्वाकांक्षा का दुष्परिणाम है। आखिर भुगतना तो समाज को ही पड़ता है? इसी व्यक्तिवाद के कारण समाज में अन्याय, अत्याचार और भ्रष्टाचार सुरसा के मुंह की तरह फैलता जा रहा है। समाज हित को व्यक्ति हित निगल रहा है। व्यक्ति के चरित्र, उसका नैतिक बल, विरोध करने की साहस बिल्कुल लुप्त हो चुकी है। आज व्यक्ति को तनिक भी चिंता नहीं है कि वह अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए जो कुछ कर रहा है, उसका उसके परिवार पर व समाज पर क्या दुष्प्रभाव पड़ेगा? सर्वत्र लापरवाही की भावना। उसे जो अच्छा लगे करेगा, कर ही रहा है। यही है अत्यंत नीच और कुत्सित व्यक्तिवाद। हमारे देश के विशिष्ट मार्क्सवादी चिंतक शिवदास घोष ने काफी पहले कहा था कि जिस देश के लोगों में अटूट नैतिक बल हो, अन्याय-अत्याचार के विरुद्ध लड़ने की ताकत हो, साहस और चरित्र हो, वह भूखे-अधनंगे रह कर भी शोषण, अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध लड़ाई लडते हुए जीत हासिल करता है। वियतनाम का उदाहरण सामने है।

(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)