अखाड़े से दूर है विपक्ष!

बहती गंगा में विपक्ष हाथ धोने की स्थिति में नहीं

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Maha Kumbh
बाबा विजयेन्द्र (स्वराज खबर, समूह सम्पादक)

कुम्भ में कल अपेक्षा से ज्यादा भीड़ आयी। पहले ही दिन इतनी बड़ी भीड़ का आना अपने आप में एक रिकार्ड है। 1.65 करोड़ की भीड़ कोई मामूली भीड़ नहीं है। अगर यही स्थिति रही तो पैतालीस करोड़ लोगों के आने की जो बात कही जा रही है वह सच साबित होने वाली है। यह भीड़ केवल भीड़ नहीं बल्कि इसमें कुछ भक्त भी हैं और कुछ भीरू भी हैं। तमाशबीन भी कम नहीं हैं। मुझे लगता है कि कुम्भ में धर्मवीर कम और धर्मभीरू ज्यादा हैं। इस भीड़ को देख विपक्ष के कान तो खड़े हुए ही हैं,अब रोंगटे भी खड़े हो रहे हैं। विपक्ष द्वारा सरकार को घेरने की पिछले दिनों जितनी कबायद हुई, वह अभी फिलहाल निष्प्रभावी होती नजर आ रही है।
बहती गंगा में विपक्ष हाथ धोने की स्थिति में नहीं है। इसलिए कुम्भ से दूर है। एक मुख्यमंत्री होने के नाते व्यवस्था की देख रेख योगीजी ने अपने हाथों में ली है। इस कारण सरकारी-सक्रियता अपेक्षित है। कोई भी सरकार होती तो इतनी चिंता तो उन्हें भी करनी होती। क्योंकि अभी भाजपा की सरकार है तो सुन्दर व्यवस्था की वाह वाही तो इन्हें मिलेगी। अगर कुछ कमी रह जाय तो यही विपक्ष इन्हें घेरने का काम करेगा, पर अब विपक्ष करे तो क्या करे?
भागती भूत की लँगोटी ही सही। विपक्ष ने मुसलमानों की सहभागिता का कुम्भ में न होने का आरोप लगाया है। मुसलमानों को इस कुम्भ में इंट्री न मिलने का आक्रोश विपक्ष में है। हिंदुओं को तो विपक्ष नहीं साध पाया, विपक्ष को मुसलमान तो हाथ लगे? विपक्ष ने हारे को हरिनाम की तरह इस मुद्दे को उठाया है। निःसंदेह कुम्भ कई लाख करोड़ का बाजार साबित होने वाला है। मेरी भी यही समझ है कि धर्मकर्म में न सही, पर अर्थकर्म में मुसलमानों को वंचित करना ‘सबका साथ सबका विकास और सबका विश्वास’ जैसे नारे का खंडन है। इस स्थिति में मोदी-योगी की महिमा का मंडन कैसे होगा?
कुम्भ परिसर में जाकर भी मुसलमान क्या करते? पिछले कई वर्षों से इनको लेकर पवित्रता और अपवित्रता के प्रश्न उठते रहे हैं। याचिका दर याचिका की कहानी भी चल रही है। डोजर और बुलडोजर सब चल रहा है। संभल के क़ब्र की मिट्टी अभी सूखी भी नहीं है। दंगा में मारे गए हिंदुओं की भी चिता की आग अबतक बुझी नहीं है। इस अवस्था में हिन्दू और मुसलमान के बीच किसी समरसता की कल्पना करना अनुचित ही होगा। कुम्भ में जाली टोपी देख असामाजिक तत्वों को रायता फैलाने में देर नहीं लगती। यहां महिला नागा, पुरुष नागा जैसे न जाने कितने खेल-तमाशे हैं। यहां ये सारी चीजें दूसरे धर्मों के लिए अनबूझ पहेली ही हैं। अगर इन्हें नहीं शामिल किया गया तो अच्छा ही हुआ। लेकिन यह भारत के भविष्य के लिए शुभ नहीं है।
अगर सब कुछ ठीक होता तो हिन्दू और हिंदुत्व को निकट से समझने में मुसलमानों को और भी सुविधा होती। जो हमारे साथ रहने वाले हैं उन्हें समझना और जानना भी जरुरी होता है। घुलने मिलने का और क्या आधार हो सकता है? मुसलमान हमारे देवी देवता को ज्यादा जानते हैं। दर्जनों नाम ये गिना देंगे, पर हम इनसे इतने दूर हैं कि इनके पीर पैग़म्बर का कोई नाम हम नहीं जानते हैं। एक दूसरे के रीतिरिवाज और धर्म-कर्म को जाने बिना हम कैसे एक दूसरे के निकट आ सकते हैं?
जैसे ही हम सोहार्द की बात करते हैं तो हमारी शव-साधना शुरू हो जाती है। हम गरे मुर्दे उखाड़ने लग जाते हैं। मुझे लगता है कि अभी तक शांति सद्भावना का कोई स्वर कुम्भ से बाहर नहीं आया है। कुम्भ में केवल शक्ति प्रदर्शन वाली बातें ही हो रही हैं। कुम्भ, नेक होने से ज्यादा हिन्दू समाज को एक होने का ही सन्देश दे रहा है।
भारतीय राजनीति में धर्मनिरपेक्ष जैसे शब्द अब भोथरे हो चुके हैं। हिन्दू अच्छा हिन्दू बने और मुसलमान भी अच्छा और सच्चा मुसलमान बने, यही एक रास्ता है जो हमें एकता की ओर ले जाएगा। हम अच्छा तो तुम बुरा, इससे काम तो नहीं चलेगा। एक दूसरे धर्म की जो खूबियां हैं उन्हें ही चिन्हित करना पड़ेगा। खामियां गिनने का समय नहीं है। अब आगे देखने और चलने की बात होनी चाहिए। पीछे मुड़कर जितना देखेंगे उतना ही हम पीछे रह जाएंगे।
मुसलमानों ने देश के लिए क्या किया और क्या नहीं किया, इस पर कुप्त होने की आवश्यकता नहीं है। हिंदुओं ने दूसरों को कभी सताया या नहीं सताया, पर अपनों के साथ ही जितना अत्याचार किया गया अगर इसे याद किया जाए तो यह कुम्भ ही बेकार हो जाएगा। यह जो हिंदुओं की भीड़ है वह अपने अतीत को भूल कर जमा हुई है। इन्ही धर्मगुरुओं ने पीढ़ी दर पीढ़ी इस समाज का शोषण किया। शिक्षा और संस्कार से बहुजनों को वंचित रखा। शिक्षा और ज्ञान को कभी आमजन तक पहुँचने ही नहीं दिया। बावजूद सबकुछ भूलकर लोग यहां जमा हुए हैं। मुसलमानों को भी सीखना चाहिए।
अपने लोगों को तो मुर्ख बना कर हम विश्वगुरु हो गए? विसंगतियाँ और विडंबनायें बहुत हैं, बावजूद साथ चलने का अभ्यास तो हमें करना ही होगा।
विपक्ष को कुम्भ में जाना चाहिए था। हो सकता है कि इस भीड़ का कुछ हिस्सा विपक्ष को भी चाहने वाला हो।
समाज जैसा भी हो इसी समाज के बीच पक्ष और विपक्ष को काम करना है। कुम्भ में नहीं जाकर विपक्ष द्वारा भाजपा को वाक-ओवर देना ही है। चुनावी अखाड़ा के अलावे भी यहां बहुत सारे अखाड़े हैं। कांग्रेस भी संगम तट पर बहती गंगा में हाथ साफ कर सकती थी। हाथ कट जाने से किस्मत ख़राब नहीं हो जाती है। कुम्भ में भारत का समाज खड़ा है। इसे भाजपा का समाज समझ लेना, विपक्ष की एक बड़ी भूल है। अकेले ज्योतिषपीठ कांग्रेस के लिए कितना मोर्चा सम्हालेगा?
कुछ संतो का भाजपा से दूरी अवश्य है पर ये मुसलमान के भी तो करीब नहीं हैं। एकता के लिए हिन्दू और मुसलमान को एक दूसरे का हाथ पकड़ना ही होगा। काश! कुम्भ में भी मोहब्बत की दुकान खोली जाती? जगह-जगह दुकान खोलने से क्या होगा? थोड़ा माल भी तो इस दुकान का बिकना चाहिए। जो भी हो कुम्भ को लेकर विपक्ष का नजरिया सही नहीं है।

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