सत्यार्थ यात्रा- चाँद निकलकर भागा
चाँद की चाँदनी और सूरज की चमक में बादलों की भूमिका
पूर्णिमा का चाँद अपनी चाँदनी सागर पर ऐसे बिखेर रहा था, मानो— मोतियों की बारिश हो रही हो। उमड़ती-घुमड़ती लहरों पर जैसे अंतरिक्ष के तारे टिम-टीमा रहे हों। किसी प्रेम कहानी का मिलन स्वप्नलोक में हो रहा हो। जहाँ क्षितिज सागर में डूब रहा है, वहाँ बादलों के टुकड़े ठीक वैसे ही तैनात थे, जैसे किसी राजा के स्वागत में पुष्पवृष्टि करने की तैयारी कर रहे हों। कभी कभी बादल का एक आधा टुकड़ा चाँद पर पहरा देने लगता। चाँदनी फिर भी उन बादलों को चीरकर सागर और समां को रौशन किए जा रही थी। भोर के चार- साढ़े चार बज रहे हैं। सुकांत अपनी जीवनसंगिनी के साथ सूरज के उगने का इंतज़ार करते हुए चंद्रभागा तट पर बैठा है। समां के जादू में खोए दोनों कभी सागर, तो कभी चाँद, तो कभी बादलों की अठखेलियां देख रहे हैं।
चाँद की चाँदनी और सूरज की चमक में बादलों की भूमिका पलटी हुई सी प्रतीत होती है। रात के अंधेरे को पूर्णिमा का चाँद चुनौती दे रहा है। जब नज़रें आसमान में तारे तलाशने उठती हैं, तो रौशन बादल दिखते हैं। कालिमा वहाँ है, जहाँ नज़रें बादलों से आगे अंतरिक्ष में तारे तलाश रही है। सूरज के उगते ही बादल काले और आसमान साफ़ हो जाता है। अभी सूर्य देव यहाँ सोए हैं, कहीं और जाग रहे होंगे। कुछ ही देर में एक लाल गोला क्षितिज पर उभरने वाला है। हम उसका इंतज़ार नहीं कर रहे हैं। हम तो बस यहाँ अभी सांस लेते हुए प्रकृति के आगोश में सोए सपने देख रहे हैं। खुली आखों के स्वप्न को पूरी होने की दरकार नहीं होती, कवि की कल्पना कभी अधूरी नहीं होती।
सुकांत क्षितिज पर नजरें गड़ाए इस सपने को जीने की कोशिश कर रहा है। वह अपनी कोशिशों में ही पूरा है। पूरे चाँद को देख उतना ही उत्साहित है, जितना बादलों को देखकर है। अनिशा का हाथ थामे वे दोनों चाँद की तरफ़ चले जा रहे हैं। मानो उन्हें किसी सीढ़ी की तलाश हो जिसके सहारे वे चाँद को थोड़े और क़रीब से देख पायें। चलते चलते, उन्हें तट किनारे बना एक चबूतरा मिला, हाथ थामे दोनों बैठ गए। रात की खामोशी में सागर की लहरें दहाड़ती नहीं, गाती नाचती सी प्रतीत होती हैं। गद्य और पद्य में लय मात्र का ही तो अंतर है। दिन में सागर जो कहानी गद्य में सुनाता है। अस्र्णोदय से पहले रत्नाकर वही क़िस्सा छंदों में सुना रहा होता है।
हम चुपचाप, मगन, मोहित, मंत्रमुग्ध प्रकृति के इस महिमामंडन को सुने जा रहे थे। तभी एक दुर्गंध ने हमारा ध्यान भंग कर दिया।
“ये सिगरेट की बदबू कहाँ से आ रही है?” — सुकांत चिढ़ते हुए अनीशा से कहता है। वैसे तो वह ख़ुद भी बाजार में उपलब्ध इन जहरों का सेवन करता है। मगर यहाँ इस पल उसे यह आदत चिढ़ा रही है। चाँद की मद्धम रौशनी में उन्होंने पास ही दो लड़कों का साया और उनसे उठता धुंआ देखा। अपनी बात पूरी करते हुए सुकांत कहता है— “यहाँ तो पहले से नशा बिखरा है। यहाँ इन्हें नशे की क्या जरूरत जान पड़ी? निशाचर जान पड़ते हैं।”
अनिशा ने अनुमान पूरा करते हुए जोड़ा— “यहीं के रहने वाले होंगे— घर की मुर्गी दाल बराबर!”
थोड़ी देर खामोशी और दुर्गंध पसरी रही, भोर का उजाला बढ़ता जा रहा है। उन्होंने देखा थोड़ी ही दूर पर कई सारे नाविक अपनी नाव को तैयार कर रहे हैं। मछुआरे जान पड़ते हैं। साहित्य में मछुवारों को हमने गाते भी सुना है। हम इंतज़ार करने लगे कोई तो मधुर नाद हमारे कानों से टकरा हमारे मन के तारों को भी छेड़ जाये। ऐसा कुछ हुआ नहीं। यह जीवन है, जो सागर कम, समर ज़्यादा है। जीविकोपार्जन के संघर्ष में हम साहित्य भूल बैठे हैं। तभी तो जादू पर हमें यकीन नहीं बचा। साहित्य में हर जादू संभव है— अब चाहे वह व्यावहारिक हो, या काल्पनिक, वह वैज्ञानिक भी और मायावी भी हो सकता है। विज्ञान जादूगर का रहस्योद्घाटन तो कर सकता है, पर साहित्य की बाजीगरी नहीं समझा सकता है। हर धार्मिक पंथ चमत्कार के भरोसे ही तो बैठा है।
हम भी सूरज के चमत्कार का इंतजार ही तो कर रहे थे। उजाला जब थोड़ा और बढ़ा तब क्षितिज पर पसरे बादल जो अभी तक पुष्पवृष्टि की तैयारी करते जान पड़ते थे, सहसा चौकीदारी करते लगने लगे। अब कैसे सूरज इन चौकीदारों से बचता-बचाता जीवन का राग सुनाने आ पाएगा? हमें इस जिज्ञासा ने झकझोरा, ऐसा लगा हम किसी नींद से जागे हों। सामने देखा तो आसमान का एक कोना कुछ ज़्यादा ही इतराता नज़र आया। हमें यकीन हो गया, यह वही कोना है जहाँ सूरज अब कुछ देर में ही अपना चमत्कार दिखाने वाला है। रात का सन्नाटा पूरी तरह छँट चुका है। भोर हो गई है। जीवन जाग रहा है। चिड़िया हवाओं से बतियाने खुले आकाश में लहराने लगी हैं। नाविकों ने अपनी नाव पानी के हवाले कर, उस पर बैठ सागर में कोई खजाना ढूँढ रहे हैं। मछलियाँ भी तो जाग रही होंगी। क्या मछलियों को नींद आती होगी?
अब हम अकेले नहीं थे। आसपास और भी लोग इस चमत्कार को देखने भीड़ बनने को लालायित नजर आने लगे थे। पशु-पक्षियों की तरह ही वे भी ना जाने कितनी बोलियों में अपने प्रियजनों से ख़ुद को अभिव्यक्त करने की कोशिश कर रहे थे। कुछ ऐसे भी थे जो साथ होते हुए भी ख़ामोश थे। कुछ ऐसे भी तो एक दूसरे के साथ शांत थे। सब कुछ ठीक वैसा ही था, जैसा उसे होना चाहिए था। सुकांत इस पूर्णता को देख मंद-मंद मुस्कुरा रहा है। सूरज का इंतज़ार अचानक ही समाप्त हो गया, सुकांत ने दूर एक लाल से गोले की तरफ़ इशारा करते हुए अनीशा से कहता है — “देखो! तेरे माथे की बिंदिया वहाँ क्षितिज पर चमक उठी है।”
अनिशा ने उसका हाथ धीरे से दबाकर उसकी बात पूरी कर दी। वह लाल गोला आज थोड़ी मुसीबत में जान पड़ता है। बादलों की चौकीदारी ने उसके शौर्य को दबाने की पूरी कोशिश कर रखी है। पर वह सूरज है, बादलों के बीच से झाँकता अपनी लालिमा से हमारा मन मोहता, ना जाने कितनी जल्दी आकाश पर अपना आधिपत्य जमा बैठा। हमें तो पता भी नहीं चला कि कब चाँद निकलकर भागा!