डॉ योगेन्द्र
क्या प्रधानमंत्री के लिए संसद ज़रूरी नहीं है? वे चौबीस घंटे ऐसा कौन -सा ज़रूरी काम करते हैं कि संसद में बैठने की फ़ुर्सत नहीं है? क्या यह संसद का अपमान नहीं है? पहली बार जब वे संसद जा रहे थे तो संसद की सीढ़ियों पर माथा टेक रहे थे। उसी संसद में बैठने के लिए समय नहीं है? 380 का भी क्या काम है? सिर्फ़ लट्ठेबाजी करना। राज्यसभा के सभापति जगदीप धनकड़ और लोकसभा के सभापति ओम बिड़ला की बॉडी लैंग्वेज देखकर अफ़सोस ही हो सकता है। जब सत्ता पक्ष के सांसद विपक्ष पर हमला करते हैं तो वे अति प्रसन्न रहते हैं और जैसे ही विपक्ष हमला करते हैं, वे उदास हो जाते हैं। चेहरे पर मुर्दनी छा जाती है। लगता है कि कोई अपना मर गया हो। जगदीप धनकड़ ने तो सभी घाट के पानी पिये हैं। यहाँ तक कि कांग्रेस पार्टी का भी। वैसे तो मालिक के प्रति सब ईमानदार रहता है, लेकिन धनकड़ साहब तो अपने मालिक के प्रति अतिरिक्त प्यार के शिकार हैं। उन्हें अंदाज़ा नहीं है कि लोकतंत्र में मालिक लोक है। उनके प्रति ही वफादार रहना चाहिए तो इतिहास के पन्नों में कहीं रहेंगे, वरना उप राष्ट्रपतियों को कौन याद रखता है?
संसद में आजकल धींगामुश्ती चल रही है। बहस में वर्तमान शामिल नहीं है, अतीत की चर्चा है। फलां ने क्या किया और फलां ने क्या? ग्यारह साल से कुर्सी पर जमे हैं। हर चुनाव में नये वादे किये। उन वादों का क्या हुआ? नेहरु पर हमला करने का हक तो तब मिलेगा, जब आप नेहरु से अच्छा करें। नेहरु आज़ादी की लड़ाई में शामिल थे। उनकी आलोचना कीजिए, मगर अपने पूर्वजों पर भी निगाह फेरिए कि वे क्या कर रहे थे? वे आज़ादी की लड़ाई में शामिल नहीं थे। कुछ अंग्रेजों की ख़ुफ़ियागिरी कर रहे थे तो कुछ आज़ादी के दीवानों की आलोचना। हद तो यह थी कि आप देश तोड़कों के साथ मिल कर राज कर रहे थे। इसलिए पुरानी चीज़ों को घोंटिएगा तो एक न एक दिन आपको भी हिसाब देना है। सभी दिन एक तरह के नहीं होते। उसमें उतार-चढ़ाव होते रहते हैं। चढ़ाव के दिन गये। अब उतरने के लिए तैयार रहिए या इंतज़ार कीजिए। इतिहास सबसे हिसाब लेता है। छल कपट स्थायी नहीं होते।
घमंड बहुत बुरी चीज़ होती है। इसे एक न एक दिन बिखरना है। सज्जनता और सहिष्णुता जीवन का अनिवार्य हिस्सा होना चाहिए। यहाँ तो यह रश्म है कि न कुछ लेकर आये थे, न लेकर जायेंगे। अडानी भी ख़ाली हाथ जायेंगे और आप भी। कृति ही यहाँ रह जाएगी। संविधान महज़ काग़ज़ का टुकड़ा नहीं है। इसके संवैधानिक मूल्य और हित हैं। इसके ख़िलाफ़ अगर जज, तथाकथित साधु और छुटभैय्ये बोलते हैं तो सत्ता में बैठे लोग या तो समर्थन करते हैं या चुप रहते हैं। क्या सिर्फ़ आपातकाल ही संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ था? आज कई राज्यों में आप सत्ता के खिलाफ न बोल सकते हैं, न संगठन बना सकते हैं, न धरना-प्रदर्शन कर सकते हैं। हर बात के लिए नौकरशाहों से इजाज़त लेना है। जनता अब अपनी बात शांतिपूर्ण ढंग से भी नहीं कह सकती। लोकतंत्र अब नेतातंत्र या नौकरशाहीतंत्र हो गया है। जनता के वोट का अपहरण कौन सा लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा कर रहा है? दरअसल पूरे देश में हलचल और अशांति है। मौज में चरणचुम्बन करने वाले लोग हैं और लोकतंत्र की ऐसी तैसी हो रही है।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)