धर्म हमारी समस्या का समाधान नहीं कर सकता
हमारी समस्या का समाधान पूंजीवादी व्यवस्था के खात्मे से ही सम्भव
ब्रह्मानंद ठाकुर
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि अति प्राचीन काल में धर्म ने मानव सभ्यता के विकास में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया था। उस दौर में धर्म ने ही समाज में न्याय-नीति, कर्तव्य-अकर्त्व्य और मूल्यबोध की स्थापना की थी। इसी आधार पर तत्कालीन समाज विकास के पथ पर आगे बढ़ा। यहां यह उल्लेख जरूरी हो जाता है कि कोई भी आदर्श अपने समय की आवश्यकता के अनुरूप निर्मित और विकसित होता है और वह समाज के विकास में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करता है।
परिवर्तन प्रकृति का नियम है। इसे चाह कर भी रोका नहीं जा सकता। समय बीतने के बाद अतीत का उन्नत से उन्नत आदर्श और मूल्यबोध भी अनुपयोगी होकर अपनी प्रगतिशीलता खो देता है। इसी नियम के तहत जिस धर्म ने कभी समाज में महान चरित्र पैदा किया था, बाद में चलकर उसने अपना वह चरित्र खो दिया। आगे चलकर इसी धर्म ने ईश्वरीय सत्ता के नाम पर राजतंत्र का समर्थन किया। शोषण-उत्पीडन, अमीर-गरीब, अच्छा-बुरा, उचित-अनुचित आदि को ईश्वर की मर्जी बताते हुए कहा गया कि इसके विरोध में उठाया जाने वाला कोई भी कदम ईश्वर की मर्जी की अवहेलना होगी। मतलब जो कुछ भी अन्याय, अत्याचार, शोषण-जुल्म हो रहा है वह ईश्वर की इच्छा से ही हो रहा है। आगे चलकर कोपरनिकस, ब्रूनो, गैलिलियो जैसे वैज्ञानिकों ने अपने निरीक्षण-परीक्षण द्वारा प्रकृति के रहस्य का उद्घाटन किया। विज्ञान सम्मत नूतन स्थापनाएं दी। इसके विरोध में तत्कालीन धर्मगुरुओं ने उन्हें नाना तरह की यातनाएं दी। धर्म और ईश्वर की तार्किक व्याख्या करने के कारण ब्रूनों को जिदा जला दिया गया।
इतिहास गवाह है कि परिवर्तनकारी ताकतों ने सामंतवाद को उखाड़ कर पूंजीवाद की स्थापना के समय समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व का नारा देते हुए अपनी क्रांतिकारी भूमिका का निर्वाह किया था। इन्हीं ताकतों ने उस समय धर्मनिरपेक्ष मानवतावाद और वैज्ञानिक चिन्तन पर विशेष बल दिया था। तभी जाकर सामंतवाद की जगह पूंजीवादी समाज व्यवस्था कायम हुई। पूंजीवाद का शुरुआती चरित्र बड़ा ही प्रगतिशील था। जिन ऐतिहासिक नियमों से सामांतवाद का अंत हुआ, उसी नियम से आज पूंजीवाद भी घोर संकट में है। अपने इसी संकट के कारण पूंजीवाद आज समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के आदर्शों का गला घोंट रहा है। इस संकट से बचने के लिए वैज्ञानिक चिंतन, धर्मनिरपेक्षता और मानवतावाद के विरुद्ध अवैज्ञानिक चिंतन और धार्मिक कट्टरवाद को बढ़ावा दे रहा है। इनका कहना है कि विभिन्न धर्मग्रंथों में हमारी तमाम समस्याओं का समाधान है। जबकि सच्चाई यही है कि आज हम महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, शिक्षा, स्वास्थ्य, नैतिक और सांस्कृतिक पतन की जिन समस्याओं से जूझ रहे हैं, उसमें से किसी का समाधान धर्म एवं धार्मिक ग्रंथों के माध्यम से सम्भव नहीं है। ये समस्याएं पूंजीवाद की देन है। इसका समाधान पूंजीवादी व्यवस्था को जड़मूल से खात्मे से ही सम्भव है।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)