बशर, आइंस्टीन और हिटलर के बहाने

हिंसा के इतिहास को ठीक से पढ़ने की जरुरत

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डॉ योगेन्द्र

देश की खबरों से मन ऊब गया हो तो आइए, हम सब विश्व की खबरों में विचरण करें। देशों में एक देश है सीरिया। अरबी संस्कृति से लैस है यह देश। यहाँ नब्बे फ़ीसदी मुस्लिम और दस प्रतिशत ईसाई रहते है। मुस्लिमों में भी 78 फ़ीसदी सुन्नी और 22 प्रतिशत शिया है। सीरिया में आजकल धींगामस्ती चल रही है। लाखों लोग सड़क पर खड़े होकर राष्ट्रपति बशर से इस्तीफ़े की माँग कर रहे हैं। ज़ाहिर है कि देश के दो पक्ष हो गये- एक पक्ष राष्ट्रपति बशर का है और दूसरा पक्ष विद्रोहियों का। जब पक्ष दो हुए तो दुनिया में ताकतवर दो देश भी शामिल हो गये। एक अमेरिका है जो विद्रोहियों को मदद कर रहा है और दूसरा रूस है जो राष्ट्रपति बशर के पक्ष में खड़े है। सीरिया की सीमा से पाँच देश जुड़ते हैं- इराक़, जॉर्डन, लेबनान, इज़राइल और तुर्किये। आप तो जानते ही हैं कि इज़राइल और फ़िलस्तीन में गुत्थम-गुत्था है। इज़राइल में 74 प्रतिशत यहूदी है। शेष आबादी ईसाइयों और मुसलमानों की है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जर्मनी से भगाये गये यहूदी यहाँ आये थे शरण माँगने और फिर उन्होंने एक देश ही बना लिया। हिटलर ने जर्मनी में यहूदियों को गैस चैम्बर में डाल कर बेरहमी से मारा था। जब हिटलर का आतंक जर्मनी में बहुत बढ़ गया तो आइंस्टीन जैसे महान वैज्ञानिकों ने जर्मनी छोड़ कर न्यू जर्सी (अमेरिका) में बस गए। जिसे आज़ादी में साँस लेने की आदत हो जाती है, वह ग़ुलामी में जी नहीं सकता। अंतिम वर्षों में मक़बूल फ़िदा हुसैन भी भारत से चले गये। सलमान रश्दी आतंक की छाया में ही जीते रहे।
हाँ, तो मैं सीरिया की बात कह रहा था। सीरिया की तीन शहरों- अलेप्पो, होम्स और डेरा पर विद्रोहियों ने क़ब्ज़ा कर लिया है। साढ़े तीन लाख लोग विस्थापित हो गये हैं। कहा जाता है कि बशर का परिवार भाग कर रूस चला गया है। जिस शहर पर विद्रोहियों का क़ब्ज़ा है, वहाँ के नागरिकों के बारे में सोचिए तो मन सिहरता है। न जान का ठिकाना, न इज़्ज़त का और न ही संपत्ति का। कितना भयावह समय उनकी चेतना पर गुजर रहा है। दक्षिण एशिया पर क़ब्ज़ा करने की होड़ मची है। इस इक्कीसवीं सदी में भी कुछ भी महफ़ूज़ नहीं है। लेबनान, इराक़ और जॉर्डन से भी रह-रह कर जो खबरें आती हैं, वे इंसानियत को भरोसा नहीं दिलाती। ऐसे समय में बुद्ध, महात्मा गाँधी और मार्टिन लूथर किंग याद आते हैं। जैसे शेर की जिह्वा ने लहू का स्वाद चख लिया तो वह शिकार करने से बाज नहीं आता, वैसे ही जिस देश को हिंसा की आदत हो जाती है, वह लगातार यह काम करता रहता है। वह देश के अंदर या बाहर एक शत्रु ढूँढ लेता है। उससे जूझता रहता है। एक चोर अगर साधु भी बन जाता है तो आश्रम में तुंबाफेरी करता है। सीरिया तो सीरिया है, वहाँ बुद्ध और गाँधी नहीं हुए। जहॉं ये लोग हुए, वहाँ भी एक धुन चल पड़ी है कि गाँधी और बुद्ध ने देश को कमजोर बनाया। अहिंसा कायर बनाती है और हिंसा मज़बूत। इसलिए कुछ लोग हिंसा पर उतर आये हैं और कुछ लोग हिंसा के सिद्धांत सीखा रहे हैं। ऐसे लोगों से प्रार्थना है कि हिंसा के इतिहास को ठीक से पढ़ें। कहीं आपके गले की यह फसरी न बन जाये।

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डॉ योगेन्द्र

 

(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए The Dialogue उत्तरदायी नहीं है।)
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