डॉ योगेन्द्र
मुजफ्फरपुर में गंगा की समस्याओं और उसके समाधान को लेकर 28-29-30 नवंबर को सम्मेलन होने जा रहा है। इनमें ज़्यादातर सामाजिक कार्यकर्ता, मछुआरे और आम लोग होंगे। वे साधु-संत नहीं होंगे, जो गंगा की कमाई खाते हैं, लेकिन गंगा की रक्षकों लिए नहीं सोचते। वे करोड़ों लोग भी नहीं होंगे, जिनके पर्व-त्योहार गंगा के जल के बिना अधूरे रहते हैं। वे लोग भी नहीं होंगे, जो यह मानते हैं कि एक बार गंगा में डुबकी मार लेने के बाद सभी पाप कट जाते हैं और स्वर्ग मिलता है, लेकिन मेरा मानना है कि गंगा सभी का होना चाहिए। गंगा किसी की बपौती नहीं है। वह सभी लोगों की है। गंगा मुक्ति आंदोलन 1982 में शुरू हुआ। बहुत अभावग्रस्त था सबकुछ। आर्थिक अभाव तो था ही, गंगा के ज़मींदारों का आतंक था। सुलतानगंज से पीरपैंती तक की अस्सी किलोमीटर की गंगा में जलकर जमींदारी थी। और जमींदारों का दावा था कि बाढ़ तक का पानी अगर दुल्हा-दुल्हन के कमरे में घुसता है तो उसमें मछली मारने का हक हमारा है। गंगा मुक्ति आंदोलन, झुग्गी झोपड़ी संघर्ष समिति, माध्यम, शिल्पिका आदि के साथियों ने मछुआरों से एकजुटता बनायी और संघर्ष कर गंगा के ज़मींदारों को खदेड़ दिया। सरकार ने इस जमींदारी को विधानसभा में क़ानून बनाकर ख़त्म किया। लेकिन अब गंगा पर सरकारी जमींदार पैदा हो गये हैं। केंद्र सरकार ने डॉल्फ़िन बचाने के नाम पर इसी इलाक़े को अभयारण्य घोषित कर दिया। अभयारण्य पहले घोषित हुआ और उसके बाद सरकार ने क़ानून बनाया कि गंगा सहित बिहार की तमाम नदियों में फ़्री फीसिंग होगी। यानी अभयारण्य बनने के बाद भी मछुआरे मछली मार सकेंगे, लेकिन वन विभाग के अधिकारियों का कहना है कि अस्सी किलोमीटर की गंगा हमारी है और मछुआरों को मछली नहीं मारने देंगे ।
लौट कर बात वहीं आ गई है। एक तो गंगा में मछली नहीं है। इधर मत्स्य विभाग ने गंगा में जीरा डालने की कोशिश की तो वन विभाग के अधिकारियों ने मना कर दिया कि इस इलाक़े में आप जीरा नहीं डाल सकते। ग़ज़ब की नौकरशाही है। अपने गर्व, गुमान और पैसे कमाने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। गंगा को देखिएगा तो पता चलेगा कि उसके पेट में गाद पहाड़ की तरह खड़ा है। वन विभाग के अधिकारियों को जरा भी चिंता नहीं है कि गाद अगर भरता जायेगा तो गंगा में मौजूद डॉल्फ़िन कहाँ रहेगी? मछुआरे डॉल्फ़िन के दोस्त हैं, दुश्मन नहीं हैं। अगर वन विभाग के अधिकारी और मछुआरे दोनों मिल बैठ कर डॉल्फ़िन के लिए अभियान चलायें तो गंगा का कल्याण होगा। मछुआरे जितना गंगा को समझते हैं, उतना वन विभाग के अधिकारी नहीं समझते। जैसे किसान खेत का मिज़ाज को बेहतर ढंग से पहचानते हैं, वैसे ही मछुआरे गंगा को पहचानते हैं। सरकार ग़ज़ब काम करती रहती है। वे विशेषज्ञ के नाम पर बड़े-बड़े लोगों को न्यौतती है, लेकिन जो वास्तविक विशेषज्ञ है, उसकी अनदेखी करती है। मुजफ्फरपुर में जो सम्मेलन होने जा रहा है, उससे इस मुहिम को नयी दिशा मिलेगी। मैं चाहूँगा कि ईर्ष्या-द्वेष और तात्कालिक स्वार्थ से मुक्त होकर सभी एकजुट हों और इस महान नदी के रक्षार्थ कार्य करें। सरकारें आती जाती रहेंगी, लेकिन गंगा अगर रूठ गई तो फिर वह वापस नहीं आएगी।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)