गंगा के दुश्मन: कीटनाशक और गाद

गंगा नदी में कीटनाशक और खाद जीव जंतुओं पर क़हर ढा रहे

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डॉ योगेन्द्र
झारखंड और महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के रिज़ल्ट आनेवाले हैं, मगर मुझे इसमें कोई रुचि नहीं है। पहले एक्ज़िट पोल से लेकर यथार्थ पोल तक लगा रहता था। चैनल बदलते हुए बेचैन रहता था, लेकिन इस बार इच्छा मर सी गयी है। अब चुनाव होते नहीं हैं। चुनाव अब मैनेजमेंट गुरू के पास है। वही नेता सफल है जो मैनेजर है। अब आप कितना घूस जनता को दे सकते हैं और सरकारी तंत्र को कितना प्रभावित करते हैं, इस पर बहुत कुछ निर्भर है। खैर। उस पर फिर कभी। अभी प्रकृति और गंगा पर। गंगा एक सांस्कृतिक नदी है और 2012 में सरकार ने इसे राष्ट्रीय नदी भी घोषित कर दिया है। गंगा को राष्ट्र की जीवन रेखा भी माना जाता है, मगर इस जीवन रेखा का हो क्या रहा है? गंगोत्री से गंगासागर तक सैकड़ों मंदिर होंगे, हज़ारों साधु-संत होंगे और करोड़ों भक्त होंगे, लेकिन इतने लोगों के रहते हुए भी आज गंगा क्यों रो रही है? हम कब चेतेंगे? आधुनिक सभ्यता ने बहुत कुछ ऐसा दिया है जो वरदान है, लेकिन बहुत कुछ ऐसा भी दिया है जो आज अभिशाप है। अन्न ज़्यादा उपजाने के लिए विभिन्न तरह के रसायनिक खाद तैयार किये गये। पूँजीपतियों ने मौक़ा देखा। इसके लिए कल कारख़ाने लगाये और फिर इसका अंधाधुंध खेतों में प्रयोग हुए। इसी तरह से कीड़े मकोड़े मारने के लिए कीटनाशकों का भंडार खुल गया। धरती पहले स्वभावतया अन्न उपजाती थी। बहुत हुआ तो फसल की बढ़ोतरी के लिए गोबर, भांसा, गनौरा, ढेंचा आदि का इस्तेमाल करते थे। लेकिन सबके मन में लोभ उपजा और कम मेहनत में ज़्यादा कमाने की ज़िद बढ़ी। अंधाधुंध कीटनाशक और रसायनिक खाद के इस्तेमाल से न केवल धरती बर्बाद हुई, बल्कि स्वास्थ्य पर भी इसका बुरा असर पड़ा और बारिश के कारण गंगा नदी में कीटनाशकों और खाद घुलने लगा। कीटनाशक और गाद गंगा के दुश्मन बन बैठे हैं। खेतों में केंचुए हुआ करते थे, जो खेतों के लिए बहुत लाभदायक थे। उसे कीटनाशकों ने मार दिया। गंगा नदी में भी कीटनाशक और खाद जीव जंतुओं पर क़हर ढा रहे हैं।

गंगा का पानी पहले सड़ता नहीं था। यह केवल और केवल इसी नदी की ख़ासियत थी। बोतल या किसी और वर्तन में गंगा के पानी को लाकर घर में रखा जाता था। महीनों घर में पड़ा रहता था और उसमें दुर्गंध का नामोनिशान नहीं रहता था। अब ऐसा नहीं है। गंगा का पानी भी सड़ने लगा है। इसकी वजह क्या है? गंगा के बेड पर विभिन्न तरह के शैवाल होते थे, जो गंगा के लिए वरदान थे। लेकिन फ़रक्का बराज के बनने और हिमालय क्षेत्र में पेड़ों के कटने से बड़े पैमाने पर जो गाद गंगा में आये, वे बेड पर बिछते चले गये और शैवाल उस गाद में दबते गये। जीवन प्रकृति से आया है। प्रकृति का संरक्षण जीवन का संरक्षण है। आज पानी, धरती और हवा प्रदूषित हो रहे हैं। अगर ये तीनों शुद्ध नहीं रहेंगे, तो जीवन कैसे बच पायेगा? इस प्रदूषण के कारण कई प्रजातियों के जीव जंतु ग़ायब हो रहे हैं। आधुनिक सभ्यता के उत्पाद कृत्रिम उत्पाद है। ये उत्पाद दोतरफ़ा काम करते हैं। हमें सुविधा भी प्रदान करते हैं और प्रकृति के साथ खिलवाड़ भी। पॉलीथीन का हम इस्तेमाल कर रहे हैं। वे काग़ज़ या पत्तों की तरह गलते नहीं हैं। नतीजा है कि वे हमारी गलियों से नदियों तक पाये जाते हैं। नालों में तो वे तबाही मचाते ही रहते हैं। प्रकृति के साथ खेलने की आदत ने बहुत कुछ को नष्ट कर दिया है, लेकिन नदियों का नष्ट होने का मतलब जीवन का नष्ट होना है। हमें समय रहते गंगा को बचाने की सार्थक पहल करनी चाहिए।

 

Enemies-of-Ganga-Pesticides-and-Silt
डॉ योगेन्द्र
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)
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