डॉ योगेन्द्र
भागलपुर गंगा के किनारे बसा हुआ है। इसी तरह के सत्ताईस नगर गंगा के किनारे मौजूद हैं। मैं 1974 में भागलपुर आ गया था, तब से गंगा को देखता रहा हूँ। गंगा किनारे बूढानाथ मंदिर है। मैंने देखा है कि गंगा इस मंदिर के पास मँडराती रहती थी। अब दूर-दूर तक नज़र नहीं आती। गंगा पर एक पुल बन गया है, जिस पर गाड़ियाँ दौड़ती रहती हैं। अगर पुल से गंगा को अब निहारें तो आपको कल-कल करती गंगा नहीं मिलेगी। पुल के पश्चिम में रेत की ढूहें मिलेगी और पूर्व में जलती हुई लाशें। पुल के दोनों तरफ़ गंगा का अहसास कम रेत की ढूहों का अहसास ज़्यादा होगा। यह सब देख कर 2016 में गंगा मुक्ति आंदोलन के साथियों ने फ़ैसला किया कि गंगा यात्रा की जाय- कोलकाता से लेकर गंगोत्री तक। एक जून 2016 को हम लोग कोलकाता पहुँचे। कोलकाता के साथियों ने नंदन परिसर में शाम को गंगा पर एक संगोष्ठी रखी थी। नंदन परिसर में अवनींद्र भवन है, वहीं गोष्ठी आयोजित थी। हॉल में सब कुछ सजा हुआ था- मंच से लेकर कुर्सी तक। स्पीकर भी लगा हुआ था। समय पर श्रोता आने लगे जिनमें कॉलेज के प्राध्यापक, गंगा पर काम करने वाले लोग, सरकारी दफ्तर के कर्मी और सामाजिक कार्यकर्ता। मधुपुर से घनश्याम थे तो मुंबई से अनीश। स्थानीय जनसत्ता के पूर्व संपादक शैलेंद्र शांत और मछुआरों के संगठक विजय सरकार भी थे। मंच पर घनश्याम, मनीषा बनर्जी, उदय और मैं बैठे। संचालन का दायित्व महत्वपूर्ण कवि राज्यवर्द्धन निभा रहे थे। मुझे यात्रा के उद्देश्यों के बारे में कहने को कहा गया। मैंने कहा कि हमलोग गंगा पर 1982 से ही काम कर रहे हैं। लेकिन 1982 के काम और वर्तमान के काम के स्वभाव में अंतर है। 1982 का काम शुरू हुआ था-भागलपुर से पीरपैंती के बीच 80 किलोमीटर गंगा में मौजूद जलकर ज़मींदारी के खिलाफ और मौजूदा पहल हुई है गंगा की अविरलता और निर्मलता के लिए। गंगा अब न निर्मल है, न अविरल। गंगा नदी पर ख़तरे लगातार बढ़ रहे हैं। फ़रक्का में सरकार ने बराज बनाया। बराज बनाकर सरकार खुश हुई। उसका अहंकार तुष्ट हुआ, लेकिन गंगा दुखी हो गयी। उसके दुख को पहचाना बंगाल के महान इंजीनियर कपिल भट्टाचार्य ने। उन्होंने सरकार से आग्रह किया कि मत बनाइए बराज, इससे लाभ नहीं, बल्कि बहुत बड़ी हानि होगी। गंगा की अविरलता तो मरेगी ही, मरेगी कई क़िस्म की मछलियॉं और कटेगा हजारों एकड़ जमीन। लोग बाढ़ की पीड़ा सह नहीं पायेंगे। लेकिन सरकार ने नहीं माना। कपिल भट्टाचार्य को पाकिस्तान का जासूस कहा। उसकी नौकरी भी छीन ली और उस महान इंजीनियर ने बाकी बची जिदंगी एकांत के गहरे सन्नाटे में। सरकार इस बराज के माध्यम से अपना पुराना पाप धोना चाहती थी और वह पाप किया था प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने और वह भी विज्ञान के नाम पर। आजादी के बाद पंडित नेहरू ने दामोदर और उसकी सहायक नदियों पर बॉंध बनाकर दामोदर नदी घाटी परियोजना बनायी। यहॉं उनके तर्क थे- जनता को पानी मिलेगा और बिजली मिलेगी। पंडित नेहरू ने इसे आधुनिक भारत के विकास का मंदिर कहा था। बाद में चलकर यह विनाश का मंदिर बना।
दामोदर घाटी परियोजना विनाश का मंदिर क्यों बना? आखिर वैज्ञानिकों और तकनीशियनों से कहॉं चूक हुई? दामोदर और उसकी सहायक नदियों पर नौ बॉंध बॉंधे गये। बॉंध बाँधने से दामोदर की जल निकासी क्षमता घटी। इसके कई दुष्परिणाम हुए। हजारों वर्षों से दामोदर नदी अपनी जल निकासी क्षमता के माध्यम से एक बहुत बड़ा और जरूरी काम कर रही थी। वह काम था नदी के मुहाने पर ज्वार-भाटे के कारण जमने वाले रेत और गाद को ठेल कर पुन: समुद्र में डालना। दामोदर नदी के प्रवाह में रफ़्तार बहुत थी, इस रफ़्तार से वह रेत और गाद को आसानी से धकेल सकती थी। दामोदर पर बॉंध बनने से यह प्राकृतिक काम रूक गया। नदी के मुहाने और उसके आसपास रेत और गाद जमने लगा। नतीजा हुआ कि हुगली बंदरगाह की गहराई घट गयी। पानी का जहाज़ अब यहॉं आ नहीं सकता था। आखिरकार सरकार ने हाल्दिया में नया बंदरगाह बनाया। मगर इससे सरकार समस्याओं से निजात पा नहीं सकती थी। उसे मुहाने में जमने वाले रेत और गाद से मुक्ति चाहिए थी, क्योंकि यह रेत और गाद हाल्दिया की ओर भी बढ़ रहा था। सरकार ने निर्णय लिया कि गंगा पर बराज बनाकर इस समस्या से छुटकारा पाया जाय। इंजीनियर कपिल भट्टाचार्य ने इसका विरोध किया और कहा कि गंगा के पास इतना पानी ही नहीं है। आज गंगा गाद से भर गया है। ज़रूरत इस बात की है कि फ़रक्का बराज के सभी फाटक तोड़ दिये जायें और गंगा को अविरल बहने दिया जाय।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)