डॉ योगेन्द्र
नब्बे के दशक में मैं पूरी गया था। गया था तो एक सम्मेलन में, लेकिन मंदिर की वास्तुकला देखने की इच्छा हुई। कोणार्क तब तक देख चुका था। हम चार मित्र थे जिसमें एक मुस्लिम मित्र भी थे। कोणार्क सूर्य मंदिर में तो कोई दिक्कत नहीं थी। पुरी के मंदिर में गैर हिन्दू के लिए प्रवेश निषेध था। मेरा मित्र थोड़ा आशंकित हुआ। मैंने कहा कि हिन्दू मुस्लिम मन का भ्रम है। जन्म के साथ मेरे माथे पर खुदा हुआ नहीं है कि मैं हिन्दू हूं, न तुम्हारे माथे पर लिखा है कि तुम मुस्लिम हो। गेट पर जो खड़ा है। वह भी नहीं पहचानता कि हम दोनों क्या हैं? चले चलो। हम लोगों को कौन पूजा करना है? हम लोग मंदिर परिसर में प्रवेश कर गये। परिसर में भक्त गण मौजूद थे ही। मैंने मंदिर की दीवारों पर उकेरी गई तस्वीरें देखीं। ये तस्वीरें बौद्धों के पंच मकार पर आधारित हैं। पंच मकार यानी मद्य ( शराब), मांस, मछली, मुद्रा (अनाज), मैथुन (संभोग)। मैथुन संबंधी क्रियाओं के कई दृश्य इन तस्वीरों में मिलते हैं। निश्चित तौर से पाल राजाओं के काल में यह बौद्ध विहार रहा होगा। उसी काल के भागलपुर स्थित विक्रमशिला महाविहार और नालंदा महाविहार है। जिसे हम लोग ने आज कल विश्वविद्यालय का नाम दे रखा है।
अगर कोई मुस्लिम मंदिर में जाता है या दलित वर्ग के लोग जाते हैं तो क्या मंदिर स्थित ईश्वर की प्रतिमा को कोई तकलीफ़ होती है? या फिर मस्जिद में कोई हिन्दू जाता है तो खुदा को कोई परेशानी होती है? क्या किसी को किसी धर्म स्थल में जाने से रोकना अधार्मिक काम नहीं है? या कहें कि धर्म की सतही समझ नहीं है? जगत के पालन करने वाले क्या संकीर्ण दिमाग के होते हैं? मुझे तो यह भी लगता है कि अगर दलित वर्ग को किसी मंदिर में जाने से रोका जाता है तो वे मंदिर न जायें, बल्कि स्कूल-कालेज जायें। ऐसे मंदिर जहां लोगों की आवाजाही में रोक हो, वह संसार के जन्मदाता या पालनकर्त्ता तो नहीं हो सकते। परसों मैं ति. मा. भागलपुर विश्वविद्यालय परिसर स्थित शिक्षक कालोनी में गया था। वहां मैंने कई वर्ष गुजारे हैं। एक प्रोफेसर मित्र के यहां गया। उन्होंने माथे पर लाल टीका लगा रखा था। मैंने कुछ पूछा नहीं। वे खुद ही कहने लगे कि मेरा जन्म दिन था। मैं देवघर मंदिर गया था। स्पेशल टिकट कटाने के बाद भी लाइन में दो घंटे खड़ा रहना पड़ा। हिन्दू मंदिरों की अजीब हालत है। भगवान मिलन के लिए मुद्रा मोचन जरूरी है।
हमारे देश में कदम-कदम पर मंदिर सहित विभिन्न धार्मिक स्थल खड़े हो रहे हैं। आर्थिक गैर-बराबरी और सामाजिक असमानता में कोई कमी नहीं आ रही। अगर इतने तरह के ईश्वर, अल्लाह, गॉड आदि हैं तो मानव इतना पीड़ित क्यों है? क्यों हमारे पास विश्व प्रसिद्ध अच्छे वैज्ञानिक, समाजशास्त्री, लेखक नहीं हैं? दरअसल अगर श्रद्धा का अतिरेक हो तो दिमाग सोचना बंद कर देता है। न कोई सवाल है, न जिज्ञासा है, न ढंग की रचनाशीलता है। हम सब कुछ दूसरे पर थोप कर और नियति को मान कर काम करना बंद कर देते हैं। धर्मभीरु देश में धर्मभीरु मन किसी काम के लायक नहीं रहता। आज धर्मस्थल बहुत हैं, लेकिन उतना ही भ्रष्टाचार है, दुष्कर्म हैं। इसलिए मुक्ति का रास्ता मंदिर-मस्जिद नहीं है, ज्ञान है। ज्ञान प्राप्ति के जितने रास्ते हैं, हम उस रास्ते पर चलें तो देश का बंद मार्ग खुलेगा।

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