कायथी लिपि : कभी घूरे के भी दिन फिरते हैं

कायथी लिपि पढ़ने वाले की बड़ी शिद्दत से खोज होने लगी

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ब्रह्मानंद ठाकुर
इन दिनों बिहार में भूमि सर्वेक्षण का काम चल रहा है। कतिपय रैयतों के पास उनका भूमि सम्बन्धी अभिलेख, खासकर जमीन केवाला का पुराना दस्तावेज कायथी लिपि में है। भू-धारियों का कहना है कि उनके ऐसे कुछ दस्तावेजों की जमीन का दाखिल-खारिज इसलिए नहीं हो सका कि इस लिपि को सम्बंधित कर्मचारी पढ़ नहीं पा रहे हैं। उनको ऐसे दस्तावेज को देवनागरी लिपि में अनुवाद करवा कर लाने को कहा जा रहा है। समस्या जटिल है।

कायथी लिपि पढ़ने वाले की बड़ी शिद्दत से खोज होने लगी है। कोई मिल ही नहीं रहा है। मुझे याद है। मेरी दादी कायथी पढ़ती और कायथी लिपि में लिखती भी थी। उसे देवनागरी लिपि का भी अच्छा ज्ञान था। लकड़ी के टाईप से छपा, सचित्र सुख सागर वह खूब पढ़ती थी। उसमे छपा चित्र दिखा वह मुझे डराती भी थी। मैं 6-7 साल का था। एक दिन दादी सुख सागर पढ़ रही थी और मैं उसकी बगल में ऊधम मचा रहा था। दादी ने मुझे बुला कर सुखसागर के एक पन्ने पर छपा चित्र दिखाते हुए कहा था, ज्यादा बदमाशी करोगे तो ऐसे ही ओखरी में बांध दूंगी। उस चित्र में माता यशोदा अपने प्यारे कन्हैया को ओखल में बांध कर धमका रही थी और कन्हेया टुकुर-टुकुर यशोदा को देख रहे थे। मुझे वह दृश्य बड़ा प्यारा लगा था। माफ़ करिए, कायथी लिपि की चर्चा करते हुए मैं थोड़ा विषयांतर हो गया। मगर नहीं, अपनी दादी के कायथी और देवनागरी लिपि के ज्ञान की चर्चा करने के लिए इतना लिखना मुझे ज़रूरी लगा। दादी कहती थी, हमारे बड़े चाचा 13 साल की उम्र में घर से भाग कर बंगाल चलें गये थे। फिर कई बर्षों बाद साल-दो साल पर घर आते और फिर वापस चलें जाते। उन्होंने शादी नहीं की मगर घर पर नियमित मनीआर्डर और कपड़े पार्सल भेजते रहते थे। दादी उनको पोस्टकार्ड और अंतर्देशीय पत्र पर चिठृठी भेजती रहती थी। गांव में ही डाकघर था। स्कूल जाते हुए उस चिट्ठी को लेटर बाक्स में डालना मेरा काम था। दादी कायथी लिपि में चिठ्ठी लिखती थी। उसकी लिखावट बड़ी महीन होती थी। मैं पोस्ट कार्ड पर लिखा वह पत्र घर से डाकघर तक जाते हुए टो… टा कर पढ़ लेता था। कायथी के क, ल, र, प जैसे कुछ अक्षर समझ जाता था। कुछ दादी पूछने पर बता देती थी।
मेरी दादी का देहांत लगभग 76-77 साल की उम्र में 1975 में हो गया। मेरा कायथी लिपि का ज्ञान अधूरा रह गया। अब भूमि सर्वेक्षण में भूमि संबंधी दस्तावेज पढ़ने और उसका देवनागरी में अनुवाद करने वाले खोजें नहीं मिल रहें हैं। इक्के-दुक्के लोग मिलते भी हैं तो उनके यहां लम्बी लाईने लगी होती है और अनुवाद की फीस भी मनमानी है। सच ही कहा है, कभी घूरे के भी दिन फिरते हैं।

 

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ब्रह्मानंद ठाकुर
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)
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