ब्रह्मानन्द ठाकुर
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास में सांडर्स हत्या कांड और असेम्बली बम कांड ऐसी घटना है जिसके कारण भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव तीनों क्रांतिकारियों को एक साथ फांसी दी गई थी। आज इन तीनों महान क्रांतिकारियों का 94वां शहादत दिवस है।
इसलिए देश की वर्तमान परिस्थिति में इनकी शहादत से युवा पीढ़ी को प्रेरणा लेने की जरूरत है। आजादी आंदोलन के दौरान 1922 में कुछ महीने तक चलने के बाद असहयोग आंदोलन स्थगित कर दिया गया था। स्वतंत्रता की चाह रखने वालों में इसके कारण काफी असंतोष व्याप्त हो गया। कांग्रेस धर्मसंकट में थी। मद्रास कांग्रेस ने पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव पारित किया, लेकिन वह भी निष्फल ही रहा। ब्रिटिश सरकार इस स्थिति को गम्भीरता से देख और समझ रही थी। उसे इस बात की जानकारी हो चुकी थी कि भारत की जनता का कांग्रेस से मोह भंग हो चुका है और उसका झुकाव क्रांतिकारी आन्दोलन की तरफ हो रहा है। इस स्थिति का सामना करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने 1928 में सर जान साइमन के नेतृत्व में सात सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल भारत भेजा जिसे साइमन कमीशन कहा जाता है। ऐसी स्थिति में क्रांतिकारियों द्वारा इस कमीशन का विरोध करने का निर्णय लिया गया। नौजवान भारत सभा के नेतृत्व में लाहौर के क्रांतिकारियों ने कमीशन के विरोध में जोरदार प्रदर्शन करने का फैसला किया। कमीशन जिस दिन लाहौर पहुंचा, उस दिन शहर में पूर्ण हड़ताल थी। पूरे शहर में काले झंडे लहरा रहे थे। लोगों ने शहर के मुख्य मार्गों को जाम कर दिया था। आंदोलनकारियों का नेतृत्व लाला लाजपत राय कर रहे थे। पुलिस कप्तान स्काट के आदेश पर सांडर्स द्वारा चलाए गये लाठी से लाला लाजपत राय गंभीर रूप से घायल हो गये। कुछ दिन बाद उनकी मौत हो गई। उनकी मौत के लगभग तीन सप्ताह बाद क्रांतिकारियों ने एक बैठक में लाला लाजपतराय की मौत के जिम्मेवार सांडर्स की हत्या करने का फैसला लिया। 17 दिसम्बर,1928 को राजगुरु और भगत सिंह ने सांडर्स को उसके दफ्तर के सामने ही गोली मार कर हत्या कर दी। पहली गोली राजगुरु ने मारी थी। साण्डर्स अपनी मोटरसाइकिल से नीचे गिर गया।उसकी मौत हो चुकी थी। भगत सिंह ने भी उसपर तीन -चार गोलियां चलाई और दोनों वहां से भाग चलें। ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने इस हत्याकांड को काफी गंभीरता से लिया। पूरे भारत में अंग्रेज पुलिस चौकन्नी हो गई। इसके बाद 8 अप्रैल 1929 को एसेम्बली बम कांड हुआ। इस कांड को अंजाम दिया था भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने। असेम्बली में बम विस्फोट करने के बाद दोनों क्रांतिकारियों ने खूब जोर से नारे लगाए—- इन्कलाब जिंदाबाद, साम्राज्यवाद का नाश हो, दुनिया के मजदूरों एक हो। ये नारे अंग्रेजी में लगाए गए थे। दोनो क्रांतिकारी चाहते तो वहां से बड़ी आसानी से निकल सकते थे। लेकिन नहीं, वे भागे नहीं। अपनी गिरफ्तारी दे दी। उधर राजगुरु और सुखदेव भी गिरफ्तार कर लिए गये थे। 7 मई 1929 को अदालत में मुकदमा शुरू हुआ। सजा 7 अक्टूबर 1930 को सुनाई गई। फैसला 68 पृष्ठों में लिखा गया था। बटुकेश्वर दत्त को काला पानी तथा भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सजा हुई। सजा सुनाए जाने के दूसरे दिन इस फैसले के विरोध में न केवल लाहौर बल्कि भारत के तमाम बड़े शहरों में प्रदर्शन हुए। भगत सिंह और उनके दोनों साथी फांसी वाले सेल में बंद कर दिए गये थे। फांसी के दिन 23 मार्च 1931 को भगत सिंह लेनिन की एक किताब पढ़ रहे थे। जल्लाद जब उनको फांसी के लिए बुलाने आया तो भगत सिंह ने जल्लाद से कहा, ठहरो, एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है। जल्लाद सहम कर खड़ा हो गया। भगत सिंह ने पढ़ना जारी रखा। कुछ देर बाद किताब को छत की ओर उछाल दिया और खड़े होकर जल्लाद से कहा, चलो। संध्या 7 बजे देश के इन तीनों वीर सपूतों, भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को एक साथ फांसी दे दी गई। यह फांसी निर्धारित तिथि 24 मार्च से एक दिन पहले दी गई थी। इसकी भी एक अलग दास्तां है। फांसी के बाद भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के शवों को अंग्रेजों ने गुप्त रूप से लाहौर सेंट्रल जेल की दीवार तोड़कर निकाला और सतलुज नदी के किनारे हुसैनीवाला में जला दिया था, लेकिन बाद में लोगों ने सम्मान के साथ रावी नदी के किनारे तीनों शहीदों का अंतिम संस्कार किया। भगत सिंह भारत को एक समाजवादी राष्ट्र बनाना चाह रहे थे।उनका वह सपना पूरा नहीं हो सका।

(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)