फिर आया है पल्टीमार मौसम

चुनावी मौसम में भावी उम्मीदवारों का पल्टीमार राजनीति

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ब्रह्मानंद ठाकुर
मेरी एक कविता की कुछ पंक्तियां हैं —
अभी कल तक / हां कल तक ही/ जो हाथ कमजोरों का/ मजलूमों का गला दबोचते थे / आज अचानक/ अभिवादन की मुद्रा में/ जुड़ गये हैं/ लगता है चुनाव का मौसम आ गया है। आज से कई साल पहले ऐसे ही चुनावी मौसम में उम्मीदवारों की अतीत और वर्तमान में ओढी हुई शालीनता देख ये पंक्तियां बरबस मेरे मुंह से निकली थी। देख रहा हूं, जब से गठबंधन की राजनीति का दौर शुरू हुआ है, चुनाव चाहे वह लोकसभा का होने वाला हो या राज्यों के विधानसभा का, पल्टीमार मौसम शुरू हो जाता है। चुनाव लड़ने को इच्छुक विभिन्न दलों के भावी प्रत्याशी दल के भीतर अपनी हैसियत भांप लेते हैं। यदि टिकट मिलने की पूरी सम्भावना दिखी तो दल के नेता में उन्हें गुण ही गुण दिखाई देने लगते हैं। वे अपने नेता के गुणों का बखान करते नहीं थकते। किसी- किसी को तो अपने नेता में सर्वशक्तिमान की छवि दिखाई देने लगती है। यदि चुनाव में टिकट मिलने की सम्भावना नहीं दिखाई दी तो उनको अपने नेता में घोर अवगुण दिखाई देने लगते हैं। दिखाई ही नहीं देता, मीडिया में उन अवगुणों का खूब बढ़-चढ कर प्रचार भी करते हैं। फिर पल्टी मारना शुरू कर देते हैं। मैंने ऐसे अनेक नेताओं को बार -बार दल बदलते देखा है। अनेकों को दल बदलने का गुण विरासत में मिला है। मैंने तो कुछ को टिकट के लिए दिन में दो-दो बार दल बदलते देखा है। ऐसे ही एक नेता को एक बड़ी पार्टी ने दो-दो बार टिकट दिया। चुनाव जीत कर सांसद बने। किसी कारण से पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने अगले लोकसभा चुनाव में जब उनका टिकट काट दिया तो वे उसी दल में नि:संकोच शामिल हो गये, जिस दल को वे पानी पी-पी कर कोसा करते थे। अब वे अपने उस पुराने दल की शिकायत कर रहें हैं जिसकी कृपा से दो- दो बार चुनाव जीते थे। कुछ नेता दल बदलने के साथ रंग बदलने की कला में भी पारंगत होते हैं। ऐसे नेताओं की कमी नहीं जो पुराने दल को छोड़ टिकट मिलने की आश में दूसरे दल में चले गये। वहां भी जब बात नहीं बनी तो पुनः अपने पुराने दल में यह कहते हुए लौट आए कि यह उनकी घर वापसी है। बिहार में कुछ महीने बाद विधानसभा का चुनाव होने वाला है। विभिन्न दलों के टिकट दावेदार नेता की सक्रियता बढ़ गई है। ऐसे लोग बड़ी गंभीरता से दल में अपनी हैसियत का आकलन कर रहे हैं। अपने प्रति शीर्ष नेतृत्व का विचार जानने के लिए उनका नब्ज टटोल रहे हैं। इधर बिहार में एक नई पार्टी बनी है। पार्टी भले ही नई हो लेकिन उससे जुड़े कार्यकर्ता पूर्व में किसी न किसी दल से अवश्य जुड़े रहे हैं। यहां भी जब कुछ को टिकट मिलने की सम्भावना दिखाई दी तो पल्टी मारते हुए धराधर इस दल में शामिल होने लगे हैं। यह सब लिखते हुए कवि शिवदेव शर्मा पथिक की ‘जनता जाग रही है’ कविता की पंक्तियां याद आ रही हैं — भूले-भटके, गुमराहों को/ नेता की संज्ञा मिलती है/ बस, इसीलिए तो शासन की/ गद्दी,जब चाहे हिलती है।

 

Flip-flop politics
ब्रह्मानंद ठाकुर
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)
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