चुनाव से सरकारें बदलती हैं, व्यवस्था नही

राजसत्ता में मौलिक परिवर्तन जरुरी

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ब्रह्मानंद ठाकुर
आज के ठाकुर का कोना विषय पर लिखने से पहले मैं मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास गोदान के उस प्रसंग का थोड़ा उल्लेख करना चाहूंगा, जिसमें मिर्जा खुर्शैद ने डेमोक्रेसी की असलियत उजागर की है। प्रेमचंद ने इस उपन्यास की रचना 1936 में की थी। तब देश आजाद नहीं हुआ था लेकिन कौंसिल के चुनाव कराए जाते थे। जमींदार राय साहब की मेजवानी में कुछ खास लोग जुटे हुए थे, जिसमें मिर्जा खुर्शैद भी शामिल थे। वे भी चुनाव लड़ चुके थे। चर्चा कौंसिल के चुनाव की हो रही थी। मिस्टर तंखा ने मिर्जा साहब से मुखातिब होते हुए कहा, अबकी चुनाव में बड़े-बड़े गुल खिलेंगे। आपके लिए भी मुश्किल है। यह सुनकर मिर्जा खुर्शेद कहते हैं कि अबकी वे चुनाव में खड़े ही नहीं होंगे। तंखा उनसे पूछते हैं, क्यों? इसपर मिर्जा साहब जो कुछ कहते हैं, आज की डेमोक्रेसी में कराए जाने वाले चुनाव की वही हकीकत है। मिर्जा साहब कहते है, —– मुझे अब इस डेमोक्रेसी में भक्ति नहीं रही, जरा-सा काम और महीनों की बहस। हां, जनता की आंख में धूल झोंकने के लिए अच्छा स्वांग है। ———— मेरा बस चले तो कौंसिल में आग लगा दूं। जिसे हम डेमोक्रेसी कहते हैं, वह व्यवहार में बड़े- बड़े व्यापारियों, जमींदारों का राज है, और कुछ नहीं। चुनाव में वही बाजी ले जाता है, जिसके पास रुपये हैं।
अब मैं अपने कथ्य पर आता हूं। हमारा देश 1947 में आजाद हुआ। 1952 में प्रथम आम चुनाव कराए गए। सत्ता पर जमींदारों और देशी पूंजीपतियों का कब्जा हुआ। तब से लगातार चुनाव हो रहे हैं। सरकारें बदलतीं रही हैं। मगर व्यवस्था में बदलाव नहीं हुआ। कहने को तो यह लोकतंत्र जनता के लिए, जनता द्वारा , जंनता का शासन है लेकिन वास्तविकता कुछ और है। चुनाव के नतीजे जनता नहीं, पूंजीपति और उनके प्रचार माध्यम तय करते हैं। संसदीय चुनाव के जरिए जो सरकारें बनती है, वे पूंजीपतियों के हित में ज्यादा काम करती है। ऐसे लोकतांत्रिक देश की जनता को यह जानना जरूरी है कि जब देश की आम जनता किसी खास दल या गठबंधन की सरकार की नीतियों, कार्यकलापों से असंतुष्ट हो जाती है तो चुनाव के जरिए दूसरे दल या गठबंधन की सरकार बनाई जाती है। ऐसे में व्यवस्था वही पुरानी रह जाती है। सरकार में बदलाव और व्यवस्था में परिवर्तन नहीं होने के कारण आम जनता की बुनियादी समस्याओं का समाधान नहीं हो पाता। इसलिए राजसत्ता में मौलिक परिवर्तन आवश्यक है और यह काम बिना क्रांति के सम्भव नहीं। रूस की महान नवम्बर क्रांति इसका उदाहरण है।

Elections change governments
ब्रह्मानंद ठाकुर
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)
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