ईसा, प्रकृति और तथाकथित संन्यासी

अक्सर धर्म को जानने का दावा करने वाले पाखंड परोसते रहते हैं

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डॉ योगेन्द्र
यों आज रात को ही ईसा मसीह का जन्म हो चुका था। रांची की चर्च में रंगीन रोशनियों बिखर गयीं। आर्च बिशप ने बालक येसु का चरण चूम कर स्वागत किया। मेरी पोती आर्ची को पूरा भरोसा है कि सांता उसके दरवाजे गिफ्ट दे जाएगा। प्रभु येसु का जन्मदिन मनाना अच्छी बात है। लेकिन यह संदेशा देना कि हर वर्ष उसी तिथि को बारह बजे रात को वे जन्म लेते हैं, यह बात हजम नहीं होती। बच्चे कोमल मन के होते हैं। छल छद्म तो जानते नहीं। स्कूलों में कही गयी बातों को निर्मल मन से हू ब हू स्वीकार कर लेता है। वह तो नदी की वास्तविक निर्मल धारा है। निर्मल धारा के लिए निर्मल संसार चाहिए। खैर। प्रभु का जन्मदिन है। उस प्रभु का जिन्हें तत्कालीन सत्ता ने कांटों का ताज पहनाया और सूली पर लटकाया। इसके बावजूद उन्होंने प्रभु से ऐसे लोगों के लिए प्रार्थना की- ‘हे प्रभु, इन्हें माफ करना। ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं। ‘ईसा माफ करना जानते थे। शरीर के सभी अंगों में कीलें ठोंकी जा रही थी, वैसे कठिन वक़्त में भी वे अविचल रहे। यह कोई सामान्य घटना तो नहीं है। गुस्से और नफ़रत से भरे संसार में वे आज भी संदेश दे तो रहे हैं। यह संदेश सिर्फ ईसाइयों तक ही सीमित नहीं है। जरूरी नहीं है कि आप ईसाई बन जायें, तभी ईसा को जानें। अक्सर धर्म को जानने का दावा करने वाले पाखंड परोसते रहते हैं।
कल मधुपुर से आते जाते ग्यारह घंटे कार पर बैठा था। शरीर से ज्यादा मन थका हुआ था। सोने गया तो देर से नींद आई। नतीजा हुआ कि थोड़ी देर से जगा। टहलने सड़क पर निकला तो एक गाय दिख गई। रांची में जहाँ-तहाँ सड़कों पर गायें दिखती हैं, मगर वे एग्रेसिव नहीं होतीं। भागलपुर की गायें अक्सर चाय दुकानों के इर्द गिर्द मँडराती रहतीं थीं। उन्हें चाय की पत्तियाँ अच्छी लगती है। चाय की पत्तियाँ शायद कुछ नशीली भी होती हों। मैंने महसूस किया है कि वे रांची की तुलना में ज़्यादा एग्रेसिव हैं। उत्तर प्रदेश की गायों की खबरें आती रहती है। वे तो अचानक आदमी पर भी टूट पड़ती हैं। उनसे लोग भय खाते हैं और दूर ही रहना पसंद करते हैं। गायें की इन स्वभावों से किसी निष्कर्ष पर आया जा सकता है? रांची शहर में बिरसा नायक हैं। आदिवासियों का धर्म सरना है। यानी प्रकृति पूजक। उसे पेड़, पत्ते, हवा, बारिश से प्रेम है। हाथ में तीर-धनुष है, लेकिन वे जीविका के साधन हैं। उनके पास मांदर है। कुल मिलाकर मुलायम स्वभाव के हैं। भागलपुर से यह मुलामियत गायब है। गंगा बहती है, लेकिन वे भी अधमरी हो गयी है। लोग चिड़चिड़े से हैं। रांची में किसी से किसी जगह का पता पूछो तो वे पूरी कोशिश करते हैं कि वे सही सही बता दें। भागलपुर में उलटी बात है। पूछने के बाद उनका जवाब ना ही होता है। प्रकृति जहाँ की जितनी बिखरेगी, वहाँ के लोग और जानवर उतने ही वे बिखरे नजर आयेंगे। उत्तर प्रदेश की गायें यों ही ग़ुस्से में नहीं रहती है। वहाँ के शासक संन्यासी हैं, लेकिन संन्यास धर्म का शायद ही पालन करते हों। ग़ुस्से और नफ़रत से भरे हुए। हर वक्त हमलावर। इसलिए मुझे लगता है कि विकास बहुमंज़िली इमारतों में नहीं है । वह प्रकृति के संरक्षण और संवर्धन में है।

Jesus Christ and the so-called saints
डॉ योगेन्द्र

 

(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)
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