डॉ योगेन्द्र
जाड़े की सुबह हर शहर में एक- सी होती है। कोयलांचल के शहरों में थोड़ा- सा अंतर दिखता है। यों यहाँ भी सड़क किनारे चाय की केतली अँगड़ाई ले रही होती है। लोग चादर-स्वेटर में लिपटे घर के अंदर-बाहर कर रहे होते हैं। नुक्कड़ की दुकानों के शटर खुल रहे होते हैं। कोयले और कारख़ाने अंतर पैदा करता है। सड़कों पर एक ओर से दूसरी ओर टपना मुश्किल होता है। मोटर साइकिलों, साइकिलों और जिप्सियों के पीछे लगे लदे लोग भाग रहे होते हैं। ये लोग किसी न किसी काम से ही जा रहे हैं। जमशेदपुर से लगभग बीस किलोमीटर दूर है पोटका प्रखंड। यहाँ भूमिज आदिवासियों का बाहुल्य है। हमलोग चले तो सुबह के नौ बज रहे थे। कार जैसे ही पोटका की ओर चली कि पेड़ों से भरे जंगल दिखाई पड़ने लगे। पहले गीतिलता, फिर तुड़ी और हाता। हाता से ही एक सड़क चाइबासा होते हुए उड़ीसा जाती है और दूसरी पोटका की ओर। मैं नब्बे के दशक में यहाँ आया था। मैंने अपनी स्मृतियों में पहचान के चिह्न ढूँढने लगा, मगर कुछ हासिल नहीं हुआ। सड़कों पर दो जगह किन्नर मिले- सजे-सँवरे हुए। साइकिलों पर लड़कियां, गिट्टी ढोती ट्रकें और सड़क किनारे होटल-दुकानें। धान के खेत। कार पोटका प्रखंड के रोलाडीह गाँव की ओर मुड़ी। गाँव में आँखें घरों की ओर गयी। भीति चित्र दीवारों पर उभरे थे। कहीं फूस, कहीं खपरैल और कहीं पक्के। लिपे बरामदे, आँगन और देहरियाँ। लिपाई सीमेंट के रंग के। पता चला कि यह लिपाई जले हुए पुआल और गोबर से की जाती है, क्योंकि ऐसी लिपाई में दीमक नहीं लगती। घर के बाहर गड़े हुए पत्थर जिसमें बुज़ुर्गों के नाम, जन्म और मृत्यु की तिथि। बुजुर्गों की स्मृतियाँ और नेह बसी हुई हैं इन बेजान पत्थरों में। अगहन महीने का अंतिम गुरुवार था। आदिवासियों के लिए यह ख़ास दिन होता है और वे रंगोली और फूलों से अपना घर सजाते हैं।
हम लोग एक पुराने इमली के पेड़ के नीचे बैठे। पेड़ की जड़ों के पास बहुत से छोटे बड़े पत्थरों के टुकड़े थे। मालूम हुआ कि ये टुकड़े उनकी यादें हैं जो गुज़र चुके हैं। जब भी कोई गुजरता है तो पत्थर का एक टुकड़ा लाकर रख देता है। बैठते ही गाँव के पुरुष,औरतें और बच्चे इकट्ठे होने लगे। बातचीत चली। आदिवासियों के लिए 15 जनवरी सबसे पवित्र होती है। इस दिन वे शादी के लिए लड़का-लड़की देखते हैं, घर की बुनियाद रखते हैं यानी सबसे पवित्र काम वे इस दिन संपादित करते हैं। इस दिन हर घर में पिट्ठा बनता है और यह मुर्ग़ा, सूअर या भेड़ का होता है। इस दिन गाँव में मुर्ग़े, भेड़ और ख़रगोश उड़ाते हैं। वे इन्हें हवा में उछालते हैं और वह जिस दिशा की ओर से नीचे गिरता है, उससे वे बारिश का अंदाज़ा लगाते हैं। शादी में लड़का पक्ष ही लड़की पक्ष को पहले तो बैल, बछिया आदि देते थे और अब यह चलन पैसे में बदल गयी है। यह इसलिए दिया जाता है, क्योंकि वहाँ से लड़की लेने की भरपाई की जाती है। शादी में यहाँ माता-पिता की कोई भूमिका नहीं होती। मामा-मामी सब काम करते हैं। पर्व- त्योहार में मदोदी तरीक़ा अपनाया जाता है। मदोदी यानी मदद करना। जो भी लोग शादी में शामिल होते हैं, वे कुछ न कुछ सामान लेकर जाते हैं। यहाँ अगर स्त्री-पुरुष में असहमति होती है तो दोनों पक्ष के मामा-मामी और अगुआ बैठते हैं और बातचीत करते हैं। मामला नहीं सुलझता है तो साल का पत्ता लाया जाता है और दोनों पक्ष मिलकर उसे फाड़ देते हैं। इसे वे झाड़-पत्तर कहते हैं।
पुटुस कँटीले पत्तों के बीच खिले हुए थे। एक और छोटे-छोटे उजले फूल थे जिसे वे लोग कांग्रेस घास कहते थे। अकाल पड़ने के बाद अमेरिका ने जो गेहूँ दिया था। उसके साथ ही वह आया है। एक छोटे से तालाब में कमल भी थे। लिखने को बहुत कुछ है, लेकिन कॉलम की सीमा है। अंत में उन लोगों ने मांदर निकाला और बजाना शुरू किया। औरतें नृत्य करने लगी। असमय ही सही, वातावरण लयबद्ध हो उठा। गाँव में ग़रीबी है, मगर हँसी की कोई कमी नहीं है।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए The Dialogue उत्तरदायी नहीं है।)