डॉ योगेन्द्र
स्वामी विवेकानंद ने ‘प्राच्य और पाश्चात्य‘ विषय पर बोलते हुए भारत का चित्र यों खींचा था- ‘सलिल- विपुला उच्छवासमयी नदियाँ, नदी-तट पर नंदनवन को लजानेवाले उपवन, उनके मध्य में अपूर्व कारीगरी युक्त रत्न- खचित गगनस्पर्शी संगमरमर के प्रासाद और उनके सामने तथा पीछे गिरी हुई टूटी फूटी झोपड़ियों का समूह, अंतस्तल: जीर्णदेह छिन्नवस्त्र युगयुगान्तरीण निराशादर्शक वदनवाले नर-नारी तथा बालक-बालिकाएँ, कहीं-कहीं उसी प्रकार की कृश गायें, भैंसे और बैल, चारों और कूड़े का ढेर- यही है वर्तमान भारत! अट्टालिकाओं से सटी हुई जीर्ण कुटियाँ, देवालयों के अहाते में कूड़े का ढेर, रेशमी वस्त्र पहने हुए धनियों के बगल में कौपीनधारी, प्रचुर अन्न से तृप्त व्यक्तियों के चारों ओर क्षुधाक्लान्त ज्योतिहीन चक्षुवाले कातर दृष्टि लगाये हुए लोग- यही है हमारी जन्मभूमि!’ स्वामी विवेकानंद की मृत्यु एक सौ बाईस वर्ष पहले 4 जुलाई 1902 को हो गई थी। उस समय का भारत ऐसा था तो क्या इस भारत में कोई बड़ा बदलाव आया है? आबादी बढ़ी है तो आर्थिक असमानता भी बढ़ी है। आज सड़क पर बहुत लंबा जाम लगा है। टहलने के लिए जिधर जाता था, उधर जा न सका तो गाँव की ओर निकलने वाली सड़क पर चल पड़ा। थोड़ी दूर चला तो झिरखुरिया बस्ती मिली और फिर फतेहपुर। झिरखुरिया तक सड़क के दोनों किनारों पर आम के पेड़ लगे थे। मंजर से वे लद रहे थे। उसके आसपास टिटभांत के पौधे। वसंत उस पर भी चढ़ गया था। अच्छा लग रहा था कि फतेहपुर बस्ती आयी। गंदगी जहाँ तहाँ बिखरी हुई, तंग करनेवाली ट्रेफ़िक। झुग्गी झोपड़ियों के बीच चमचमाते मकान। सड़ी नालियाँ, घर के सामने सड़ता पानी। पता नहीं विवेकानंद इसे देखते तो क्या लिखते?
इन बस्तियों के लिए सरकार क्या कर रही है? वह आर्थिक असमानता घटाने में अक्षम है। सच्चाई यह है कि उसकी इच्छा भी नहीं है कि यह असमानता घटे। उसे बढ़ाने में वह लगी है। सरकार को इसका वोट भी समेटना है। कुछ न कुछ इसका इंतजाम करना होगा। इसके लिए महाकुंभ जैसा आयोजन है। सरकार उसमें तथाकथित आस्था ठूँस रही है कि वह सोचना बंद कर दे। मुझे आजकल दो खबरें खींचती हैं- महाकुंभ की और अवैध अप्रवासियों को ट्रंप द्वारा डिपोर्ट की। महाकुंभ की भगदड़ और दिल्ली रेलवे स्टेशन पर हुई हिन्दुओं की मौत, आँकड़ों को छिपाने की कोशिश और सरकार की नाकामी- जालियाँवाला कांड की तरह ही लगती हैं। अंतर यह है कि जालियाँवाला बाग में डायर के नेतृत्व में गोलियों से भारतीयों को भूना गया था और इस बार सरकार ने न्यौता देकर लोगों को हादसों में मारा। इक्कीसवीं सदी में लोगों को चाँद पर भेजने की योजना है, मगर अमेरिका भारतीयों के हाथ और पैर बाँध कर भारत भेज रहा है। तीन खेप लोग आ चुके हैं। औरों की भी लाइन लगी है। मुझे यह बात समझ से परे लगती है कि लोग 30-40 लाख रुपए खर्च कर अमेरिका अवैध ढंग से क्यों जा रहे हैं? यह सच है कि गरीबों को भारत में टिके रहने का कोई कारण नहीं है। अमीर लोग लंदन से न्यूयॉर्क में बस सकते हैं। ज्यादातर अमीर की औलादें यही कर रही है। उनके माता-पिता ने जैसे तैसे कर पैसे कमाए हैं। गरीबों के पास क्या है? राष्ट्रवाद के खोखले नारे! इन नारों को कितने दिनों तक सीने से लगाए रखेंगे? क्या उनके लिए रास्ते हैं? किधर जायें वे? इस भारतभूमि की गौरव -गाथा के लिए कितने गीत लिखे गए, लेकिन आज उसकी वह गौरव-गाथा छिन्न-भिन्न हो रही है।

(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)