ब्रह्मानंद ठाकुर
दिवाली बीत गई। इसके दूसरे दिन का पर्व सुकराती (गोवर्धन पूजा) सूना-सूना रहा। गांवों में कोई चहल पहल नहीं। बज्जिकांचल में गोवर्धन पूजा को सुकराती कहा जाता है। मुख्य रूप से यह किसानों- पशुपालकों का पर्व है। इस दिन बैल की विशेष रूप से पूजा होती है। अब जब किसानों के दरवाजे पर बैल ही नहीं रहे तो सुकराती कैसा?
परम्परा का निर्वाह करते हुए पशुपालक इस दिन गाय-भैंस, बकरी को नई रस्सी पहना कर सुकराती का रस्म अदा कर लेते हैं। यह सब देखते हुए मैं अतीत में लौटता हूं। उपकार फिल्म का गीत, बैलों के गले में जब घुंघरू जीवन का राग सुनाते हैं, गम कोस दूर हो जाता है खुशियों के चमन मुस्काते हैं, याद आ जाता है। बैल किसानों का मिनी सम्मान होता था। उसके दरवाजे की शान और स्मृद्धि में सहायक। किसानों का अपने बैल के प्रति भावनात्मक लगाव था। वे उससे बोलते-बतियाते भी थे। इसी बैल की पूजा पर केन्द्रित था सुकराती पर्व।
किसान सुकराती पर्व पर मवेशियों के लिए पटुआ की रस्सी बनाने का काम विजयादशमी के बाद से ही शुरू कर देते थे। तरह-तरह के नाथ, गरदान, मोहरी, रस्सी, गरदान में घुंघुरू गूंथने, कौड़ी वाला गरदान आदि बनाने का काम टोले के किसान मिलजुलकर करते थे। बड़े जमींदारों के मजदूर अपने घर से ऐसी रस्सियां बना कर लाते। बदले में उनको उपहार में नगद और वस्त्र दिया जाता था। सुकराती का दिन गहमागहमी का होता था। अहले सुबह से ही पशुपालक सोन्हावन तैयार करने के लिए विभिन्न औषधीय वनस्पति एकत्र करने में जुट जाते थे। चिरचिरी, बरियार, ककहिया, बकाएन, रेंगनी, घोडसार, पीपल (लत्तर वाला), सोहराई, बाकस, हापुड़, टहकार, गुम्मा, गुरुज, मसूरदाना, हल्दी आदि 16 प्रकार की वनस्पतियां एकत्र की जातीं थीं। फिर इसे छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर ओखल में कूटा जाता था। अच्छी तरह कुटने के बाद उसे मिट्टी के नये वर्तन में पानी में रख दिया जाता। इसके बाद दरवाजे पर गोबर से आयताकार घेरा बना कर उसके भीतर कलात्मक ढंग से गोधन बनाया जाता। इस गोधन में गोबर से ही हल-बैल, जानता, ओखल, मूसल आदि की आकृति बनाई जाती और उसके ऊपर सिंदूर लगा कर नाना प्रकार के फूल चस्पां कर दिए जाते थे। इस बीच लुहार कच्चे बांस का खूंटा और कांडी पहुंचा देता था। मुलायम खर से दोगहा रस्सी बनाई जाती। तमोली पान का पत्ता देता था। इसके बदले लुहार और तमोली को भी उपहार मिलता था। अपराह्न दो बजे के बाद बैल को सोन्हाओन पिलाने की प्रक्रिया शुरू होती थी। सभी तरह की रस्सियों को लाल सिसकियां रंग में रंग कर सूखने के लिए छोड़ दिया जाता था। सोन्हाओन पिलाने के लिए बैल को गोधन के पास गाड़े गये बांस के खूंटे में खर से बने दोहा में बांधा जाता। मिट्टी वाले वर्तन में रखे वनस्पतियों को छान कर कांडी से सोन्हाओन पिलाया जाता। फिर बैल को खीर खिला कर पानी से उसका मुंह पोंछ कर पान का पत्ता खिलाया जाता। महिलाएं दूब, धान, हल्दी से बैल के अगले दोनों पैर का चुमावन करतीं। रंग-विरंगी रस्सी, गरदान,और घुंघरु पहना कर बैल के शरीर पर गेरू से सुनहली आकृति बनाई जाती। फिर झूमते हुए बैल को नाद पर बांध कर खाने के लिए चारा डाल दिया जाता। इस तरह सुकराती पर्व का समापन होता था। अब तो पपुआ की रस्सी का कहीं नामोनिशान नहीं रहा। दुकानों में प्लास्टिक की रंग बिरंगी रस्सियों की भरमार हो गई। किसान वही रस्सी खरीद कर सुकराती के दिन अपने मवेशियों को पहना कर इस पर्व की औपचारिकता पूरी कर लेते हैं। उन्हें यह भी पता नहीं कि सोन्हाओन बनाने के लिए कौन-कौन सी वनस्पतियां उपयोग में लाई जाती थी?
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)