भारतीय संविधान और शिक्षा में समानता का संघर्ष

शिक्षा व्यवस्था गहरे वर्ग विभाजन का शिकार

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एम. अखलाक
भारत में शिक्षा को केवल ज्ञान अर्जन का माध्यम नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय और राष्ट्र निर्माण का आधार माना गया है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही यह अपेक्षा की जाती रही है कि भारत में सभी बच्चों को समान, गुणवत्तापूर्ण और समावेशी शिक्षा प्राप्त होगी, जो उन्हें अपने  जीवन में आगे बढ़ने के लिए आवश्यक उपकरण प्रदान करेगी। किंतु हकीकत इससे कहीं अलग है। आज देश में शिक्षा व्यवस्था गहरे वर्ग विभाजन का शिकार है। एक ओर निजी स्कूलों की चकाचौंध है, तो दूसरी ओर सरकारी स्कूलों की उपेक्षा और जर्जर व्यवस्था। इस खाई के विस्तार ने न केवल संविधान की मूल भावना को चुनौती दी है, बल्कि सामाजिक और आर्थिक असमानता को भी और अधिक गहरा किया है।
भारत में शिक्षा व्यवस्था मोटे तौर पर दो हिस्सों में बंटी हुई है- निजी और सरकारी शिक्षा प्रणाली। इन दोनों के बीच अंतर केवल संसाधनों या सुविधाओं का ही नहीं है, बल्कि सोच और अवसरों का भी है। निजी स्कूलों में पढ़ाई करने वाले बच्चों को आधुनिक तकनीक से युक्त स्मार्ट क्लासरूम, विज्ञान प्रयोगशालाएं, कंप्यूटर लैब, खेलकूद और सांस्कृतिक गतिविधियों जैसी सुविधाएं मिलती हैं। इन स्कूलों में अंग्रेजी माध्यम, कम छात्र-शिक्षक अनुपात और परिणाम आधारित पढ़ाई होती है। इसके विपरीत, अधिकतर सरकारी स्कूलों में बुनियादी सुविधाओं का भी अभाव है- शौचालय, पेयजल, पुस्तकालय, खेल का मैदान, योग्य शिक्षक और शिक्षण सामग्री की भारी कमी देखी जाती है। यह फर्क केवल भौतिक संसाधनों तक सीमित नहीं है। इन दोनों व्यवस्थाओं के बीच पाठ्यक्रम, मूल्यांकन प्रणाली, भाषा माध्यम और शैक्षणिक दृष्टिकोण में भी भारी अंतर है। यही कारण है कि गरीब और अमीर परिवारों के बच्चों के भविष्य में भी शुरू से ही फर्क पैदा हो जाता है।
भारतीय संविधान का उद्देश्य एक समानतामूलक समाज की स्थापना करना है। संविधान के कई अनुच्छेद इस बात की पुष्टि करते हैं कि शिक्षा में समानता एक मौलिक सिद्धांत है। अनुच्छेद 14 जो सभी नागरिकों को कानून के समक्ष समानता और समान संरक्षण की गारंटी देता है। जब शिक्षा का स्तर समाज के विभिन्न वर्गों में अलग-अलग होता है, तो यह इस अनुच्छेद का स्पष्ट उल्लंघन है। इसी तरह अनुच्छेद 21-A शिक्षा को मौलिक अधिकार का दर्जा देता है। 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा सुनिश्चित करता है। परंतु इस अधिकार में गुणवत्ता और समानता की बात स्पष्ट रूप से नहीं की गई है, जिसके चलते शिक्षा की गुणवत्ता सामाजिक-आर्थिक हैसियत के अनुसार तय होती है। वहीं, अनुच्छेद 38 राज्य को निर्देश देता है कि वह समाज में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय को बढ़ावा दे। अनुच्छेद 39 कहता है कि बच्चों को समान अवसर और सुविधाएं मिलनी चाहिए ताकि उनका समुचित विकास हो सके। शिक्षा की असमानता इन सिद्धांतों को नकारने के समान है।
शिक्षा में यह असंतुलन केवल व्यक्तिगत स्तर पर प्रभाव नहीं डालता, बल्कि संपूर्ण सामाजिक ताने-बाने को प्रभावित करता है। एक ही प्रतियोगी परीक्षा में भाग लेने वाले छात्र अगर पूरी तरह भिन्न शैक्षणिक पृष्ठभूमि से आते हैं, तो वास्तविक प्रतिस्पर्धा संभव नहीं होती। यह गरीब बच्चों के लिए अन्यायपूर्ण स्थिति बनाता है। सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को अक्सर आत्मगौरव और आत्मविश्वास की कमी महसूस होती है, जो उनके व्यक्तित्व विकास में बाधक बनती है। निजी स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों को न केवल बेहतर अंक मिलते हैं, बल्कि उन्हें उच्च शिक्षा और रोजगार के बेहतर अवसर भी प्राप्त होते हैं। शिक्षा का यह भेदभाव वर्गभेद को और मजबूत करता है, जिससे सामाजिक एकता को खतरा उत्पन्न होता है।
बहरहाल, यदि सरकार, समाज और शैक्षणिक संस्थाएं मिलकर चाहें, तो यह असमानता दूर की जा सकती है। सरकारी स्कूलों को केवल ‘गरीबों का स्कूल’ मानकर उपेक्षित नहीं किया जा सकता। इन स्कूलों में निवेश बढ़ाया जाना चाहिए ताकि वे निजी स्कूलों के समकक्ष खड़े हो सकें। वहीं, देशभर में एक समान पाठ्यक्रम, भाषा और मूल्यांकन प्रणाली लागू की जानी चाहिए ताकि सभी बच्चों को समान शैक्षणिक आधार मिले। इससे सभी को बराबर प्रतिस्पर्धा का अवसर मिलेगा। साथ ही, निजी शिक्षा संस्थानों को शिक्षा का व्यवसायीकरण करने की छूट नहीं दी जानी चाहिए। उनकी फीस, प्रवेश नीति और सामाजिक उत्तरदायित्व को विनियमित करना होगा। वहीं, सरकारी स्कूलों में कार्यरत शिक्षकों के नियमित प्रशिक्षण और पारदर्शी मूल्यांकन की व्यवस्था होनी चाहिए। कोरोना संक्रमण के दौरान यह स्पष्ट हो चुका है कि डिजिटल शिक्षा की पहुंच एक नया विभाजन बना रही है। अब आवश्यकता है कि तकनीकी संसाधनों की पहुंच सभी वर्गों तक समान रूप से सुनिश्चित की जाए।
(लेखक-लोक संस्कृति पर अध्ययन व लेखन कार्य में संलग्न हैं।)

 

 

Equality in education
एम अखलाक
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)
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