
नीतीश कुमार की उम्र चौहत्तर की हो गई है। चौहत्तर से नीतीश कुमार का गहरा संबंध है। चौहत्तर आंदोलन के प्रोडक्ट के रूप में ही ये ख्यात रहे हैं। इसी साल चुनाव होना है। इनके अभूतपूर्व मुख्यमंत्री होने की संभावना बहुत थी, पर ये भूतपूर्व होके ही रह जाएंगे? इतिहास होने की हिस्सेदारी इनके नसीब में नहीं। पॉलिटिक्स इनकी लाख ढुलमुल है पर जनहित में अगर बड़ा काम कर जाते तो बड़ा काम होता। कम से कम पिछला रिकॉर्ड भी बचा लेते। अगर ऐसा ही हाल रहा यहां का तो आने वाली पीढ़ी तबाह हो जाएगी। हम रिमोट से लहंगा ही उठाते रह जायेंगे कोई लालग्रह पर जाने की सोच भी नहीं पाएंगे। बिहार में नासा की बात होगी तो लोगों को नशा ही सुनाई देगा।
सम्मानजनक-इंट्री के साथ अगर सम्मानजनक-एक्जिट हो तो वह बेहद सुखद होता है। नीतीश की ऐसी दर्दनाक विदाई की अपेक्षा किसी को भी नहीं थी। आज पूरा बिहार हिंसा की चपेट में है। कहीं भी और किसी की भी जिंदगी एक खबर बन सकती है। हर जगह असुरक्षा और हर कोई असुरक्षित। बीते माह बिहार में साठ हत्याकांड हुआ। इनके निर्लज्ज प्रवक्ता केवल हाथ मारते हैं, और टेलीविजन पर बाघ मारते हैं। वैसे इनके मूंह मारने की बात यहां नहीं करूंगा।
कानून के राज की स्थापना इनकी केवल भाषा भर है। इस सरकार की लचर व्यवस्था ने बिहार को फिर बदनाम कर दिया है। बिहार में पलायन का दौर शुरू हो गया है। कोई भी कारोबारी यहां आना नहीं चाहेगा। जो कुछ टिके हुए भी हैं वे अपना व्यापार दूसरी जगह शिफ्ट करने की सोच रहे हैं। दुशासन बाबू होने का आरोप यह आरोप भर ही नहीं बल्कि यह आपराधिक सरकार साबित हो चुकी है। जो भी कुछ पुलिस कर रही है वह केवल गवर्मेंट- एक्टिविज्म भर है। इसे सरकारी-सक्रियता ही कह सकते हैं और कुछ नहीं।
रजिया जिस तरह गुंडों के बीच फंस गई थी ठीक उसी तरह नीतीश की भी राजनीति गोलवरकरों के बीच फंस गई है। बिहार में जिस तरह हिंसा अचानक बढ़ी है, यह बड़ी राजनीति का हिस्सा है। नीतीश कुमार से जानबूझकर गलती करवाई जाती रही। इनकी बीमारी और विस्मरण को खबर बनाया गया। नीतीश राजग में ही महत्वहीन कर दिए गए। जबकि ये प्रधानमंत्री बन सकते थे। इससे बिहार का खाता भी खुलता, पर कुछ नहीं हुआ। अब क्या गीत सुनाऊं कि- नीकू बदनाम हुआ मोदी तेरे लिए…
एक बार मोदी की पदयात्रा में नीतीश के हाथ में तख्ती थमा दी गई थी। उसी दिन इनका दोयम दर्जा का नेता होना शुरू हो गया था। पैर पकड़ना और अश्लील इशारा करना, नीतीश आत्महंता होते नजर आए। पूतना की तरह नीतीश को गोद में बिठाकर भाजपा को इन्हें राख करने की जरूरत ही नहीं पड़ी। इन्हें धीमी मौत देने की कथा पहले ही लिख दी गई थी। बिहार में आई हिंसा की बाढ़ से राजद कम, और भाजपा ज्यादा खुश है। भाजपा की आंतरिक राजनीति को बर्बाद होते बिहार ने ऊर्जा ही प्रदान की है। नीतीश के साथ भाजपा बदनाम तो हो रही है, पर भाजपा का काम हो रहा है।
नीतीश की इस रहस्यमय राजनीतिक हत्या की कहानी जासूसी फिल्म की तरह है। हत्यारा कौन? इसकी जानकारी चुनाव के अंतिम दृश्य में ही मिल जाएगी। नीतीश अपनी ही विसंगति और विडंबना का शिकार हो जाय, इससे बेहतर बिहार की भाजपा के लिए क्या होगा?
खास पॉलिटिक्स को आप जानें। सामाजिक-न्याय के कैम्पेन का केंद्र यहां की धरती हीं है। भाजपा चाहती है कि हिस्सेदारी और भागीदारी की पॉलिटिक्स पहलेजा घाट में ही डूब जाय तो बेहतर होगा। बात नीतीश के मरने की नहीं है, बल्कि इनकी सामाजिक-न्याय की नीति को पूरे देश में फैलने की है। बिहार में बीजेपी हार जाय कोई बात नहीं है, पर सामाजिक न्याय का यह विषय बिहार की सीमा क्रॉस न करे।
सामाजिक-न्याय की लड़ाई हर लड़ने वाले इधर-उधर भटक रहे हैं। किसी को भी एक जगह जमा नहीं होने देना है, यह भाजपा की सनातन चाहत है। किसी को हनुमान तो किसी को सुग्रीव, तो कोई जामवंत बनाकर इन्हें रखना है।
हत्या तो लोगों की हो ही रही है। हत्या तो नीतीश की भी हो रही है। यह बिहार का सलबा-जुडूम ही है। मारने वाला भी पिछड़ा और मरने वाला भी पिछड़ा? सामाजिक-न्याय की हुई इस अकाल मृत्यु पर दुख सबको है। यह जातीय प्रश्न नहीं, बल्कि राष्ट्रीय प्रश्न है। बिहार की हिंसा को राष्ट्रीय परिपेक्ष्य में ही देखने की जरूरत है। नीतीश आज चौहत्तर के हैं कल पचहत्तर के हो जायेंगे पर प्रेमी पचहत्तर इनके नहीं रह जायेंगे।