जब बाजार जाति बेचने लगे

जातिगत भेदभाव

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एम अखलाक
भारतीय संविधान ने जातिगत भेदभाव को समाप्त कर एक समतामूलक समाज की कल्पना की थी। समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के आदर्शों पर टिकी यह व्यवस्था केवल कानूनों तक सीमित नहीं थी, बल्कि सामाजिक सोच और आचरण में बदलाव का भी आह्वान थी। लेकिन बदलते समय में यह देखा जा रहा है कि जिस जाति व्यवस्था को समाज से हटाया जाना था, वह अब बाजार के लिए एक ‘ब्रांड सेगमेंट’ बन चुकी है। आज भारतीय बाजार में ऐसे उत्पाद और सेवाएं तेजी से उभर रही हैं जो जातिगत पहचान पर आधारित हैं। यह प्रवृत्ति केवल उपभोक्ता मांग का उत्तर नहीं है, बल्कि एक योजनाबद्ध बाजारीकरण है, जिसमें जाति को आर्थिक लाभ के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है।
पिछले कुछ वर्षों में कई ब्रांड और व्यवसाय सीधे तौर पर जातिगत पहचान को केंद्र में रखकर अपने उत्पाद प्रस्तुत कर रहे हैं। ‘ब्राह्मण टी-शर्ट’, ब्राह्मण कप या ‘ब्राह्मण किचन’ जैसे नामों से रेस्तरां चलाए जा रहे हैं। ये ब्रांड शुद्धता और सांस्कृतिक श्रेष्ठता जैसे शब्दों को व्यापारिक लाभ के लिए भुना रहे हैं। धार्मिक सेवाओं में भी यह प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी है। ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर ‘ब्राह्मण पंडित आन डिमांड, जैसे विज्ञापन आम हो चुके हैं। गृह प्रवेश, विवाह या संस्कारों के लिए जाति आधारित पुरोहित सेवा अब एक संगठित बाजार बन चुकी है।
इसी के समानांतर, हाशिए पर खड़े समुदायों के भीतर से भी जाति-आधारित उद्यम उभर रहे हैं। जैसे दलित फूड्स आदि ब्रांड दलित अस्मिता और स्वाभिमान को केंद्र में रखकर उत्पाद पेश कर रहे हैं। ये ब्रांड एक प्रकार से सामाजिक पहचान को आर्थिक आत्मनिर्भरता में बदलने की कोशिश कर रहे हैं। यह स्पष्ट होता जा रहा है कि बाजार अब उत्पाद नहीं, पहचान बेच रहा है। कंपनियां उपभोक्ता की सामाजिक भावनाओं को समझ कर उन्हें ‘उत्पाद’ में बदल रही हैं। उच्च जातियों के लिए ‘शुद्धता’ और ‘परंपरा’ को ब्रांड वैल्यू बनाया जा रहा है, जबकि दलित-पिछड़ा वर्ग के लिए ‘प्रतिरोध’ और ‘गौरव’ को बेचने का प्रयास हो रहा है।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 15 स्पष्ट करता है कि राज्य धर्म, जाति, लिंग, जन्म स्थान आदि के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा। हालांकि यह प्रतिबंध सीधे राज्य पर लागू होता है, परंतु जब बाजार सार्वजनिक भावना को प्रभावित करने लगता है, तब यह प्रश्न उठता है कि क्या निजी क्षेत्र को सामाजिक भेदभाव को बढ़ावा देने का अधिकार होना चाहिए? क्या जाति संबंधित टैगलाइन संविधान की मूल भावना के खिलाफ नहीं हैं? क्या जातिगत विशेषण के सहारे उत्पाद बेचना सामाजिक समरसता को खंडित नहीं करता? इसका उत्तर केवल कानूनी नहीं, नैतिक भी है। व्यापार की स्वतंत्रता आवश्यक है, लेकिन वह स्वतंत्रता सामाजिक न्याय और समरसता के विरुद्ध नहीं होनी चाहिए।
जाति आधारित उत्पादों का एक पहलू यह भी है कि वे हाशिए पर खड़े समुदायों को बाजार में पहचान और मंच दे रहे हैं। यह एक सकारात्मक संकेत हो सकता है, यदि यह आर्थिक आत्मनिर्भरता, सांस्कृतिक अभिव्यक्ति और समान अवसर के साथ जुड़ा हो। लेकिन समस्या तब होती है जब जाति को श्रेष्ठता या विशिष्टता के प्रतीक के रूप में बेचकर सामाजिक विभाजन को स्थायी बना दिया जाता है। इससे सामाजिक अलगाव और सांस्कृतिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा मिलता है, जो लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए घातक है। भारत जैसे विविधतापूर्ण समाज में बाजार केवल आर्थिक संस्था नहीं, बल्कि सामाजिक व्यवहार को प्रभावित करने वाली शक्ति भी है। यदि यह शक्ति सामाजिक असमानता को ब्रांड वैल्यू बनाकर प्रस्तुत करने लगे, तो यह केवल नैतिक संकट नहीं, बल्कि संवैधानिक चुनौती भी है। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि बाजार सामाजिक संरचनाओं का दर्पण बने, निर्माता नहीं। बाजार को यह याद दिलाना जरूरी है कि वह उपभोक्ता को सम्मान दे सकता है, लेकिन समाज को विभाजित करने का अधिकार उसे नहीं है।
                                                                                  (लेखक लोक संस्कृति पर अध्ययन व लेखन कार्य में संलग्न हैं)

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एम अखलाक

 

(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)
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