
ताजिया और कांवड़ यात्रा की तनातनी के बीच एक सनातनी माहौल में संघ प्रमुख मोहन भागवत की मुस्लिम नेताओं के साथ बैठक सम्पन्न हुई। हिन्दू और मुसलमान के गहरे अविश्वास और नफरती उमस के बीच यह बैठक बहुत ही राहत देने वाली है। यह बैठक दिल्ली के एक मस्जिद में थी।
पिछले कई दिनों से ‘मस्जिद में बैठक’ को लेकर सियासत गर्म है। अखिलेश यादव को ‘मुल्ला अखिलेश’ का फिर वही उपाधि मिला। वैसे यह उपाधि अखिलेश को विरासत में ही मिली है। मुलायम सिंह यादव भी रामजन्म भूमि आंदोलन के दौरान ‘मुल्ला मुलायम’ घोषित किए गए थे।
आज मुसलमानों का मंदिर जाना गुनाह हो गया। हिंदुओं का मस्जिद जाना गुनाह हो गया। वैसे धर्मों के एजेंट ने ही इस आवाजाही का विरोध किया है। ईश्वर और खुदा भी धार्मिकता की ऐसी अंधेरगर्दी से परेशान होंगें। सभी बराबर हैं। केवल हम बड़ा छोटा करने में लगे हैं।
अर्थहीन वैमनस्यता की अब कोई जरूरत नहीं है। हमें बहुत कुछ भूलना होगा और बहुत कुछ याद भी करना होगा। याद रखना होगा अपने पुरखों को और सांझी शहादत और सांझी विरासत को। भागवत ज्ञान भी यही है। डीएनए की बात ये करते ही रहे हैं।
मोहन भागवत के इस कदम की सराहना की जानी चाहिए। वैसे संघ का अपना मुस्लिम मंच है जिसे इंद्रेश कुमार लीड कर रहे हैं। हिन्दू और मुसलमानों के बीच के नफरती दीवार को गिराने की कोशिश पहले भी हुई। तीन सालों से यह मंच सक्रिय है। स्वयं मोहन भागवत इसके पहले भी मस्जिद में कई बैठक कर चुके हैं।
सवाल है कि संघ के इस पहल के क्या मायने हैं? इसका केवल राजनीतिक निहितार्थ है या और कुछ। अगर भारत के बजाय केवल भाजपा के भविष्य की सेहत की चिंता है तो इसका सामाजिक समरसता पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ेगा। हम जानते हैं कि सियासत समाज को तोड़ती है और संस्कृति जोड़ती है। इसी सियासत ने देश को बांटा और आज समाज को बांट रही है। इस तरह की बैठक की सामाजिक अभिव्यक्ति ही जरूरी है, राजनीतिक नहीं।
बात जब भाजपा की ताकत बढ़ाने की है तो मोहन भागवत किस भाजपा को ताकत देना चाहते हैं। मोहन भागवत के मन और मतलब की भाजपा कैसी होगी? वह मोदी मुक्त भाजपा कैसी होगी? अगर मोदी हटते हैं तो भाजपा का क्या होगा? इसकी बुनियाद कैसी होगी?
मोदी शासन के पंद्रह साल बाद देश कैसा होगा? क्या नफरती बुनियाद पर ही भाजपा टिकी रहेगी या कोई नया रास्ता तलाशेगी? सवाल अशेष हैं।
संघ हिन्दू मुस्लिम एकता के जिस प्रयास में है इससे खाए-पीए-अघाये हिन्दू और मुसलमान भविष्य में एक हो सकते हैं। दोनों ही धर्म के संप्रभु वर्ग आपस में सियासी जुगलबंदी कर सकते हैं। इस पर आश्चर्य किसी को नहीं होना चाहिए़। यह पहले भी हो चुका है। यह कोई नई बात नहीं है। वैसे मुगलों से रोटी-बेटी का संबंध भारत के किसी दलित वंचितों का कभी रहा नहीं। कुछ अपवाद हो सकते हैं। सत्ता के लिए सबकुछ को दाव पर लगाने की सर्वहारा की संस्कृति कभी थी ही नहीं। धर्म को तो इन्होंने जीया और ढोया ही है।
यह वर्ग कभी धर्म को भोगना तो दूर, धर्म के नाम पर अपमानित ही ज्यादा हुआ। जो वर्ग मुगलों और अंग्रेजों के साथ रहे, वे ही संघ के फैलाव के आधार रहे। उसी सनातन शक्ति ने संघ को शक्तिशाली बनाया। देशभक्ति की चादर ओढ़े वे सभी सिपहसलार संघ में शामिल हो गए। हिन्दू और मुसलमानों के बीच एकता की जिस कवायद को संघ आगे बढ़ाना चाहता है इसे उस इतिहास की पुनरावृत्ति ही मानी जाएगी।
मोहन भागवत को हिंदू धर्म के बीच मौजूद जातियों की समाप्ति की घोषणा करनी चाहिए। पहले उपनाम ही समाप्त करने बात करे भागवत जी। मस्जिद में मोहन की मुरली बजी है। आवाज तो यह शिखर की है। पर नीचे कैसे जायेगी एकता की यह धुन। जिस जहरीले सांपों को इन्होंने सड़क पर छोड़ रखा है उसे फिर पिटारा में कैसे करेंगे?
पीएम पचहत्तर के हो गए हैं। बावजूद प्रेमी इनके पचहत्तर हैं। भागवत ने इन्हें अवकाश का संदेश दे दिया है। यह बैठक उसी संदेश का अद्यतन संस्करण है। एक पूर्व-पीठिका भी।
छोटा भाई और मोटा भाई जो कुछ कर रहे हैं, मस्जिद में भागवत का पहुंचना इनका हवा निकलना ही है। ये डाल- डाल तो भागवत पात-पात। अब इस नवाजवादी संघ का कोई तोड़ नहीं है इन गुजराती बंधुओं के पास। जो कुछ इन दोनों ने किया, वह सब बेकार साबित होगा। संभव है कि इस बैठक से सत्ता का एक विशेष वर्ग जन्म ले। यह तो कुछ-कुछ ही समझ है और भी समझना जरूरी है।