एम अखलाक
भारत के स्वाधीनता संग्राम का इतिहास केवल स्वतंत्रता प्राप्ति का नहीं, बल्कि विचारधाराओं के संघर्ष का भी इतिहास है। इस काल में जहां एक ओर महात्मा गांधी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस बहु-धार्मिक, समावेशी और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की कल्पना कर रहे थे, वहीं कुछ ऐसे राजनेता और संगठन भी सक्रिय थे जो भारत को धार्मिक पहचान के आधार पर परिभाषित करने की कोशिश कर रहे थे। इन विचारधाराओं की टकराहट ने अंततः भारत के विभाजन को जन्म दिया।
मोहम्मद अली जिन्ना और हिन्दू महासभा, भले ही अलग-अलग समुदायों के प्रतिनिधि रहे हों, लेकिन उनकी राजनीति और वैचारिक दृष्टिकोण में कुछ गहरी समानताएं थीं। इनकी विचारधारा ने भारत में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को गहराया और स्वतंत्रता के साथ ही एक त्रासदी- विभाजन को जन्म दिया।
मोहम्मद अली जिन्ना, जो आरंभ में एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवादी नेता के रूप में कांग्रेस का हिस्सा थे, समय के साथ मुस्लिम लीग के प्रमुख बनकर मुसलमानों के लिए एक अलग राजनीतिक पहचान और राष्ट्र की मांग करने लगे। जिन्ना का दावा था कि हिंदू और मुसलमान दो अलग कौमें हैं, जिनकी संस्कृति, धर्म, कानून, इतिहास, और सामाजिक रीतियाँ इतनी भिन्न हैं कि वे एक साथ एक राष्ट्र में नहीं रह सकते। इसी विचार से ‘दो राष्ट्र सिद्धांत’ जन्मा, जिसके अनुसार भारत दो अलग-अलग राष्ट्रों में बंटा- भारत और पाकिस्तान।
हिन्दू महासभा, जिसकी स्थापना 1915 में हुई थी, एक हिन्दू राष्ट्रवादी संगठन था। उसके कई नेताओं, विशेषतः विनायक दामोदर सावरकर, ने भारत को ‘हिन्दू राष्ट्र’ के रूप में परिभाषित किया। उनके अनुसार भारत की सांस्कृतिक पहचान हिन्दू धर्म से जुड़ी हुई है और मुसलमानों को यदि भारत में रहना है तो उन्हें हिन्दू सांस्कृतिक मूल्यों को स्वीकार करना होगा। इस प्रकार जिन्ना और हिन्दू महासभा दोनों ही भारत को धर्म के आधार पर परिभाषित करने के पक्षधर थे, जिससे भारत के बहुलतावादी स्वरूप को गहरी चोट पहुंची। महात्मा गांधी और कांग्रेस के नेतृत्व में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन एक धर्मनिरपेक्ष और समावेशी स्वरूप को प्रस्तुत कर रहा था, जिसमें सभी धर्मों और समुदायों को समान रूप से भारत माता के पुत्र माना गया। लेकिन जिन्ना और हिन्दू महासभा दोनों ही इस विचारधारा के आलोचक थे। जिन्ना का आरोप था कि कांग्रेस, विशेषकर महात्मा गांधी, हिंदुओं की पार्टी है जो मुसलमानों के हितों की अनदेखी कर रही है। 1937 के प्रांतीय चुनावों के बाद जब कांग्रेस ने मुस्लिम लीग को सरकारों में साझेदारी नहीं दी, तो जिन्ना के संदेह और गहरे हो गए। दूसरी ओर हिन्दू महासभा गांधी पर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगाती थी। उन्हें लगता था कि गांधी जी और कांग्रेस मुस्लिम समाज को खुश करने के लिए हिन्दू हितों की उपेक्षा कर रहे हैं। यह विरोध अक्सर सार्वजनिक मंचों पर खुलकर सामने आता था, जिससे राजनीतिक माहौल में ध्रुवीकरण बढ़ता गया।
इसी तरह, सांप्रदायिक आधार पर राजनीतिक प्रतिनिधित्व का विचार दोनों पक्षों की रणनीतियों का प्रमुख हिस्सा था। जिन्ना ने मुस्लिम लीग के माध्यम से मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचक क्षेत्र की मांग की। उनका उद्देश्य था कि मुसलमान केवल मुसलमानों द्वारा ही प्रतिनिधित्वित हों। वहीं, हिन्दू महासभा भी मुसलमानों के पृथक प्रतिनिधित्व का विरोध तो करती थी, लेकिन व्यावहारिक रूप से हिन्दू हितों की रक्षा के नाम पर धर्म आधारित राजनीति को बढ़ावा देती थी। उदाहरण के लिए, 1940 के दशक में कई अवसरों पर हिन्दू महासभा ने मुस्लिम लीग के साथ गठबंधन किए, जैसे बंगाल और सिंध में। इस प्रकार, दोनों संगठनों ने सांप्रदायिक विभाजन को बढ़ावा दिया, भले ही उनके नारे अलग-अलग रहे हों।
1940 के दशक के मध्य तक, जिन्ना ने स्पष्ट रूप से पाकिस्तान की मांग को अपनी राजनीति का केंद्र बना लिया था। 1940 का ‘लाहौर प्रस्ताव’ इसका उदाहरण है, जिसमें मुस्लिम बहुल क्षेत्रों के लिए अलग राज्य की मांग की गई थी। हिन्दू महासभा ने आधिकारिक रूप से विभाजन का समर्थन नहीं किया, लेकिन कई अवसरों पर उनके नेताओं ने विभाजन को एक अनिवार्य यथार्थ के रूप में स्वीकार किया। सावरकर ने कहा था कि यदि मुसलमान खुद को हिन्दुओं से अलग राष्ट्र मानते हैं, तो भारत में एक साथ रहना संभव नहीं होगा।
जिन्ना और हिन्दू महासभा की समान विचारधाराएं उस समय और अधिक खतरनाक साबित हुईं जब आम जनता को इन विचारों के पीछे लामबंद किया गया। धार्मिक पहचान को राजनीतिक हथियार बना दिया गया, जिससे न केवल देश का विभाजन हुआ, बल्कि लाखों निर्दोष लोगों की जानें गईं, करोड़ों विस्थापित हुए, और आज भी दोनों देशों में साम्प्रदायिक तनाव बना हुआ है। यह विडंबना ही है कि जिन दो शक्तियों ने अलग-अलग समुदायों के नाम पर राष्ट्र की मांग की, उनकी राजनीति में एकता नहीं, अलगाव को प्राथमिकता थी, और उसने भारत-पाक विभाजन की त्रासदी को जन्म दिया।
बहरहाल, स्वतंत्रता संग्राम के दौरान मोहम्मद अली जिन्ना और हिन्दू महासभा की वैचारिक समानता यह दर्शाती है कि चाहे किसी भी धर्म या समुदाय से जुड़ा राष्ट्रवाद हो, यदि वह सांप्रदायिक आधार पर टिका हो तो उसका परिणाम केवल विभाजन, हिंसा और सामाजिक विघटन ही होता है। आज जब भारत एक बहुलतावादी लोकतंत्र के रूप में अपनी पहचान बनाए रखने की चुनौती का सामना कर रहा है, तो इस ऐतिहासिक समानता को समझना और उससे सबक लेना पहले से कहीं अधिक आवश्यक हो गया है।
(लेखक लोक संस्कृति पर अध्ययन व लेखन कार्य में संलग्न हैं)

(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)