एम अखलाक
भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत उसकी चुनावी प्रक्रिया है, और इस प्रक्रिया का संचालन चुनाव आयोग करता है। यह संवैधानिक संस्था न केवल निष्पक्ष और स्वतंत्र मानी जाती है, बल्कि इसे लोकतंत्र का प्रहरी भी कहा जाता है। मतदाता सूचियों की तैयारी से लेकर मतदान और मतगणना तक हर चरण में जनता का विश्वास इसी संस्था पर टिका होता है। लेकिन पिछले कुछ दिनों में कांग्रेस सांसद राहुल गांधी द्वारा लगाए गए गंभीर आरोपों ने इस भरोसे को चुनौती दी है। राहुल गांधी का आरोप है कि महाराष्ट्र, कर्नाटक और अन्य राज्यों में मतदाता सूचियों में बड़े पैमाने पर गड़बड़ी की गई है। उनके मुताबिक, फर्जी पते, डुप्लिकेट नाम और संदिग्ध पहचान वाले मतदाता सूची में शामिल किए गए हैं, जिससे चुनावी नतीजों को प्रभावित किया जा सके। उन्होंने यहां तक कहा कि कांग्रेस की छह महीने लंबी जांच में एक करोड़ संदिग्ध वोटर के सबूत मिले हैं। राहुल गांधी ने चुनाव आयोग से पांच सीधे सवाल पूछे- मतदाता सूची तक पारदर्शी पहुंच क्यों नहीं दी जा रही? मतदान केंद्रों के सीसीटीवी फुटेज क्यों मिटाए जा रहे हैं? फर्जी मतदाताओं की पहचान की कार्रवाई क्यों नहीं हो रही? मतदाताओं को डराने-धमकाने की घटनाओं पर कार्रवाई क्यों नहीं होती और आयोग की निष्पक्षता पर उठे सवालों का स्पष्ट उत्तर क्यों नहीं दिया जाता?
चुनाव आयोग ने इन आरोपों को भ्रामक और बेबुनियाद बताया है। आयोग का कहना है कि राहुल गांधी यदि अपने दावों पर कायम हैं तो उन्हें शपथपत्र देकर औपचारिक शिकायत दर्ज करानी चाहिए, अन्यथा उन्हें सार्वजनिक माफी मांगनी चाहिए। आयोग ने यह भी स्पष्ट किया कि आरोपों पर कोई आधिकारिक शिकायत या प्रमाण औपचारिक रूप से उसके पास नहीं पहुंचा है। कानूनी दृष्टि से आयोग का यह रुख मजबूत दिखाई दे सकता है, संविधान और चुनाव कानून दोनों ही किसी भी शिकायत को औपचारिक प्रक्रिया के तहत दर्ज कराने का प्रावधान रखते हैं। लेकिन लोकतांत्रिक दृष्टि से सवाल यह है कि इतने गंभीर और व्यापक आरोपों को केवल बयानबाजी बनाम खंडन के स्तर पर छोड़ देना क्या उचित है? लोकतंत्र की आत्मा पारदर्शिता और जवाबदेही में बसती है। यदि जनता यह मानने लगे कि मतदाता सूची से छेड़छाड़ संभव है, तो पूरे चुनावी तंत्र की साख पर असर पड़ेगा। इसी कारण कई लोकतंत्रों में चाहे आरोप सही हों या गलत, स्वतंत्र, न्यायिक और पारदर्शी जांच को प्राथमिकता दी जाती है। इससे न केवल आरोपों की सच्चाई सामने आती है, बल्कि जनता का विश्वास भी बरकरार रहता है। यह भी याद रखना होगा कि चुनाव आयोग की साख केवल उसके संवैधानिक अधिकारों से नहीं, बल्कि उसकी निष्पक्षता की सार्वजनिक धारणा से बनती है। एक स्वतंत्र जांच में आयोग का सहयोग उसकी छवि को कमजोर नहीं करेगा, बल्कि और मजबूत करेगा। अगर जांच में आरोप गलत साबित होते हैं, तो यह विपक्ष के आरोपों को निराधार सिद्ध कर आयोग की स्थिति को और सुदृढ़ करेगा। और यदि आरोप सही पाए जाते हैं, तो यह लोकतांत्रिक सुधार का अवसर बनेगा, जिससे भविष्य में चुनावी प्रक्रिया और सुरक्षित होगी। राजनीतिक दृष्टि से, यह मामला केवल कांग्रेस बनाम भाजपा का नहीं है। मतदाता सूची और चुनाव प्रक्रिया पर किसी भी प्रकार का संदेह, चाहे वह किसी भी पार्टी के खिलाफ हो, पूरे लोकतांत्रिक ढांचे को कमजोर करता है। एक स्वतंत्र जांच न केवल राजनीतिक विवाद को शांत कर सकती है, बल्कि देश के चुनावी ढांचे को भी पारदर्शिता और साख को नई ऊंचाई दे सकती है। इस संदर्भ में, चुनाव आयोग के लिए यह अवसर है कि वह अपने ऊपर लगे सभी संदेह दूर करे। वह न्यायपालिका की देखरेख में एक उच्चस्तरीय जांच समिति गठित करने की पहल कर सकता है, जिसमें तकनीकी विशेषज्ञ, पूर्व चुनाव आयुक्त और नागरिक समाज के प्रतिनिधि शामिल हों। इससे जनता को यह संदेश जाएगा कि आयोग किसी भी आरोप से डरता नहीं, बल्कि अपनी निष्पक्षता सिद्ध करने के लिए तत्पर है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में संस्थाओं की मजबूती केवल उनके अधिकारों से नहीं, बल्कि उनके आचरण से तय होती है।
मतदाता का विश्वास हर चुनाव की बुनियाद है। जब यह विश्वास डगमगाने लगे, तो सबसे बड़ी जिम्मेदारी उसी संस्था की होती है जो उस विश्वास की संरक्षक है। आज जब देश में राजनीतिक ध्रुवीकरण अपनी चरम सीमा पर है, चुनाव आयोग पर लगे आरोप किसी एक दल के लिए नहीं, बल्कि पूरे लोकतंत्र के लिए चिंता का विषय हैं। इन आरोपों पर स्वतंत्र और पारदर्शी जांच का रास्ता अपनाना ही न केवल सबसे उचित, बल्कि सबसे जिम्मेदाराना कदम होगा। यही कदम जनता को यह भरोसा देगा कि उनका वोट वास्तव में उनकी ताकत है, और वह ताकत सुरक्षित है।
(लेखक लोक संस्कृति पर अध्ययन व लेखन कार्य में संलग्न हैं)

(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)