अतीत के झरोखे से वर्तमान का अवलोकन

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ब्रह्मानंद ठाकुर
भारत प्राचीन काल से ही भवन निर्माण की कला में निष्णात रहा है। तभी तो चीनी यात्री ह्वेनसांग ने मगध सम्राट अशोक के राजमहल का खंडहर देख कर कहा था कि अब भी यह खंडहर स्वर्ग में इन्द्र के महल से ज्यादा भव्य लग रहा है। जब यह निर्मित हुआ होगा, तब कैसा रहा होगा! अंग्रेजी हुकूमत के दौरान भी बड़े-बड़े राजा- महाराजाओं के महल अपने आकार और लागत में ताजमहल से टक्कर लेते थे। विश्व विख्यात लेखक और पत्रकार डोमिनिक लेपियर और लैरी कॉलिंस ने अपनी किताब फ्रीडम आफ मिडनाइट में महाराजा मैसूर के बारे में विस्तार से उल्लेख किया है। महाराजा का 600 कमरों वाला महल वायसराय -भवन से भी बड़ा था। उस घर के 20 कमरों में तो वे शेर, चीते, हाथी और जंगली भैंसे रखें हुए थे, जिन्हें तीन पीढ़ियों के दौरान इन महाराजाओं ने राज्य के जंगलों में मारे थे। रात को जब उसकी छत और खिड़कियों पर बत्तियां जगमगा उठती थीं, तब दूर से ऐसा लगता था कि किसी बहुत बड़े समुद्री जहाज पर कोई उत्सव मनाया जा रहा है और न जाने कैसे यह जहाज भटक कर भूखंड पर आ गया है। मैसूर के राजा के सिंहासन में 28 मन सोना जड़ा हुआ था और उस पर चढ़ने के लिए ठोस सोने की नौ सीढ़ियां बनाई गई थी, जो भगवान विष्णु के उन नौ कदमों की प्रतीक थी, जो उन्होंने सत्य की मंजिल तक पहुंचने के लिए उठाए थे। मैसूर के राजा अपने को चंद्रमा का वंशज बताते थे। वर्ष में एक बार शरद पूर्णिमा के दिन वे अपनी प्रजा के लिए ईश्वर का साक्षात रूप हो जाते थे। नौ दिनों तक हिमालय की किसी गुफा में समाधिस्थ साधू की तरह अपने महल के किसी अंधेरे कमरे में सबकी आंखों से अदृशू हो जाते थे। इस अवधि में न तो वे दाढ़ी बनाते थे और न स्नान ही करते थे। उन्हें न कोई छू सकता था और न देख सकता था। क्योंकि उनके इस गुप्त वास की अवधि में यह माना जाता था कि उनके शरीर में ईश्वर का वास होता है। नौ दिन बाद वह बाहर निकलते थे। सुनहरी झूल डालकर एक हाथी सजाया जाता था, उसके माथे पर पन्नी से जड़ा एक पत्थर लगाया जाता था। फिर उस हाथी पर बैठ कर वे मैसूर के घुड़दौड़ मैदान में पहुंचते। उनके साथ घोड़ों और ऊंटों पर सवार, हाथ में माला लिए हुए बहुत-से सिपाही चलते थे। वहां प्रजा की भीड़ अपने राजा के दर्शन के लिए पहले से खड़ी रहती थी। फिर ब्राह्मण, पुजारी मंत्रों का पाठ करके उनका बाल कटवाते। उन्हें नहला कर भोजन कराया जाता। सूर्यास्त के बाद जब घुड़दौड़ मैदान में अंधेरा छा जाता, तब महाराजा के लिए श्याम वर्ण का घोड़ा लाया जाता। जैसे ही वे उस घोड़े पर सवार होते, मैदान के चारों ओर हजारों मशालें जल उठती थीं। उन मशालों की झिलमिल रोशनी में काले घोड़े पर सवार महाराजा पूरे मैदान का चक्कर लगाते थे। प्रजा तालियां बजाकर उनका अभिवादन करती थी और इस बात के लिए आभार प्रूफ करती थी कि चंद्रवंशी राजा अपनी प्रजा के बीच लौट आए हैं। आज का यह ठाकुर का कोना लिखते हुए मैं एक गीत के माध्यम से सादृश्य स्थापित करना चाहता हूं—- बड़े-बड़े लोगन के बंगला, दो बंगला/ और एसी अलग से/ हमनी गरीबन के झोपड़ी जुलुम बा/ बरसे त पानी चुए टप से/ कहब त लग जाई धक से।
सोचता हूं, तब और अब में कहां कोई खास अंतर आया है?

 

A look at the present from the past
ब्रह्मानंद ठाकुर

 

(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं
जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)
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