एम अखलाक
भारत की स्वतंत्रता के तत्काल बाद के वर्ष न केवल राजनीतिक उथल-पुथल से भरे थे, बल्कि राष्ट्र की वैचारिक दिशा को लेकर भी गंभीर मंथन का दौर था। इसी पृष्ठभूमि में महात्मा गांधी की 30 जनवरी 1948 को हुई हत्या ने देश को झकझोर दिया। हत्या के बाद सरकार ने कई संगठनों पर नजर रखनी शुरू की, जिनमें प्रमुख था- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस)।
महात्मा गांधी की हत्या के बाद, नाथूराम गोडसे के संघ से पूर्व जुड़ाव को लेकर आरएसएस पर कई प्रकार के संदेह गहराए। यद्यपि जांच और न्यायिक कार्यवाही में आरएसएस की प्रत्यक्ष संलिप्तता सिद्ध नहीं हो सकी, फिर भी तत्कालीन सरकार के गृह मंत्री सरदार पटेल के नेतृत्व में चार फरवरी 1948 को आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया गया। सरकार ने आरोप लगाया कि आरएसएस की गतिविधियां गुप्त रूप से चलती हैं, वह सार्वजनिक शांति के लिए खतरा है और उसका प्रचार देश की एकता को तोड़ सकता है। यह प्रतिबंध संघ के इतिहास में एक निर्णायक मोड़ था, जो आगे चलकर उसके भारतीय संविधान और संविधान निर्माताओं के प्रति दृष्टिकोण को भी प्रभावित करता है। लगभग एक वर्ष तक आरएसएस पर प्रतिबंध रहा। इस दौरान उसके लाखों स्वयंसेवक असमंजस और विरोध में थे। आरएसएस नेतृत्व और सरकार के बीच कई दौर की बातचीत के बाद सरकार ने यह स्पष्ट किया कि यदि आरएसएस लिखित संविधान अपनाए, लोकतंत्र और भारत के संविधान के प्रति निष्ठा जताए और गुप्त गतिविधियों को छोड़कर खुले मंच पर कार्य करे, तब जाकर प्रतिबंध हटाया जा सकता है। गुरु गोलवलकर, जो उस समय सरसंघचालक थे, प्रारंभ में इन शर्तों से सहमत नहीं थे, क्योंकि संघ एक ‘संघटनात्मक अनुशासनात्मक परिवार’ के रूप में स्वयं को देखता था, न कि एक राजनीतिक संस्था के रूप में। लेकिन संगठन पर लगे प्रतिबंध और बढ़ते दबाव के चलते, अंततः 1949 में आरएसएस ने एक लिखित संविधान को अपनाया और भारत के संविधान के प्रति निष्ठा का सार्वजनिक आश्वासन दिया। यह एक ‘मजबूर स्वीकृति’ थी, जिसमें स्पष्ट रूप से दिखता है कि संविधान और उसके निर्माताओं के प्रति प्रारंभिक दृष्टिकोण संदेह और अस्वीकृति का था।
आरएसएस के कई वरिष्ठ विचारकों ने उस समय संविधान निर्माताओं पर यह आरोप लगाया कि उन्होंने भारत की प्राचीन संस्कृति और परंपराओं की उपेक्षा की, एक पश्चिमी मॉडल को अपनाया और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर भारत को असांस्कृतिक दिशा में ले गये। गुरु गोलवलकर ने अपनी पुस्तक बंच ऑफ थॉट्स में स्पष्ट रूप से संविधान की आलोचना करते हुए लिखा है कि- ‘हमने अपना कुछ भी नहीं रखा, यह सब कुछ पश्चिम से लिया गया है। हमारे पास हजारों वर्षों की सांस्कृतिक विरासत है, फिर भी हम उसे छोड़कर बाहर के विचारों की नकल कर रहे हैं। यह वक्तव्य बताता है कि संविधान निर्माताओं के प्रति आरएसएस का रवैया आलोचनात्मक, संशयात्मक और अस्वीकार्य था।
बहरहाल, आरएसएस की भारतीय संविधान के प्रति स्वीकृति एक वैचारिक सहमति नहीं, बल्कि एक राजनीतिक एवं सामाजिक अनिवार्यता के तहत लिया गया कदम था। गांधी जी की हत्या के बाद जो माहौल बना, उसने आरएसएस को अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए लोकतांत्रिक प्रणाली और संविधान के प्रति औपचारिक निष्ठा जताने के लिए विवश किया। इस प्रक्रिया ने यह साफ कर दिया कि संविधान निर्माताओं के दृष्टिकोण और आरएसएस की विचारधारा में उस समय गहरा वैचारिक मतभेद था। आरएसएस ने संविधान को मूलतः ‘स्वीकार’ नहीं किया, बल्कि प्रतिकूल परिस्थितियों में उसे अपनाना पड़ा।
(लेखक- लोक संस्कृति पर अध्ययन व लेखन कार्य में संलग्न है)

(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)