लोककथाओं और भजनों में गाय का स्थान
भारतीय संस्कृति में गाय को मातृवत् सम्मान और पवित्रता का प्रतीक माना गया है। यह केवल एक पशु नहीं, बल्कि धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन का अभिन्न अंग है। लोककथाओं, लोकगीतों और भजनों में गाय का उल्लेख अनगिनत बार मिलता है, जो इसकी महत्ता और लोगों के जीवन में गहरे जुड़े भावनात्मक संबंध को दर्शाता है।
लोककथाओं में गाय को प्रायः समृद्धि, सद्भाव और करुणा का प्रतीक बताया गया है। कई कहानियों में गाय को ऐसे जीव के रूप में प्रस्तुत किया गया है जो कठिन परिस्थितियों में भी अपने मालिक के प्रति वफादार रहती है। ग्रामीण भारत की लोककथाओं में ‘कामधेनु’ का उल्लेख विशेष रूप से मिलता है—वह दिव्य गाय जो अपने भक्त की हर इच्छा पूरी करती है। यह कथा केवल धार्मिक नहीं, बल्कि यह सिखाती है कि गाय का पालन-पोषण और सम्मान करने से जीवन में सुख-समृद्धि आती है।
भजनों में गाय का स्थान अत्यंत पवित्र है। विशेषकर कृष्ण भक्ति के भजनों में गाय का उल्लेख बार-बार होता है। श्रीकृष्ण को ‘गोपाल’ और ‘गोविंद’ कहा जाता है—अर्थात् गायों के रक्षक और संरक्षक। भक्तिकाल के कवियों जैसे सूरदास, मीरा और रसखान ने अपने पदों में गायों के झुंड, बांसुरी की धुन और ग्वालबालों के साथ कृष्ण के लीलाओं का अत्यंत सुंदर वर्णन किया है। इन भजनों में गाय को भक्ति, स्नेह और सरलता के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
लोकगीतों में भी गाय का स्थान विशेष है। शादी-ब्याह, त्योहार और फसल कटाई जैसे अवसरों पर गाए जाने वाले कई गीतों में गाय और उसके बछड़े का वर्णन मिलता है। इन गीतों में गाय को घर की लक्ष्मी और सौभाग्य लाने वाली मानी जाती है।
अंततः, लोककथाओं और भजनों में गाय केवल धार्मिक प्रतीक भर नहीं है, बल्कि वह जीवन, आजीविका, करुणा और संस्कृति का जीवंत प्रतीक है। यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी लोगों के हृदय में बसती है और भारतीय समाज की आत्मा में अपनी अमिट छाप छोड़ती है।