
सिल्क नगरी मालेगांव जिसके मखमली अहसास को एक विस्फोट ने छिन्न-भिन्न कर दिया था। यहां के सामाजिक समरसता की ताना-भरनी तार-तार हो गई थी। 29 सितंबर 2008 की उस मनहूस रात ने न केवल नींद छीन ली बल्कि जीने का आधार भी छीन ली। मालेगांव फिर सो नहीं पाया। मालेगांव के उस विस्फोट से भयानक चीख पुकार मची जिसमें आठ लोगों की मौत हुई और सौ से ज्यादा लोग घायल हो गए। विस्फोट करने की मंशा लोगों को मारना था या लीगी ख्याल को मारना था, बहस जारी है।
सेंट्रल मालेगांव आजादी के पहले से लेकर आज तक एक वर्ग विशेष के कब्जे में रहा। सेंट्रल मालेगांव की पॉलिटिक्स मुल्क की सेंट्रल पॉलिटिक्स न बन जाय। इसी भय ने यहां विस्फोट को अंजाम दिया। यहां की कौमी एकता सियासत के खिलाड़ी को रास नहीं आई। मालियों का मालेगांव या मौलवियों का मालेगांव? माले गांव की माली हालत नहीं थी, बल्कि अच्छी हालत थी। श्रमण संस्कृति का केंद्र था मालेगांव।
यहां का करघा झीनी झीनी चादर बुनता रहा। इस करघे में कबीरी क्रांति की झलक थी। यहां का अमन चैन फिरकापरस्ती ताकत को रास नहीं आया और संतरे की खेत में वैमनस्यता का बीज बो दिया।
ब्लास्ट के बाद मामला दर्ज हुआ और दर्जनों लोग गिरफ्तार किए गए जिसमें प्रज्ञा सिंह ठाकुर उसमें से एक थी। एटीएस कोर्ट में मुकदमा चला। सत्रह साल गुजर गए। इतने वर्षों के बाद भी पीड़ित परिवार को न्याय नहीं मिल पाया और साक्ष्य के अभाव में सारे आरोपी बरी कर दिए गए। आजतक व्यवस्था दोषी के करीब पहुंच नहीं पाई। अगर ये आरोपी दोषी नहीं हैं तो दोषी कौन है? सच है कि लोग मेरे, पर मारने वाले कौन? कौन देगा जबाव?
यह एक वर्गीय-न्याय है। यह क्लास का नहीं बल्कि क्लास के लिए न्याय है। बिहार में हुए नरसंहार के आरोपी भी रिहा कर दिए गए। क्योंकि इसके आरोपी भी खास वर्ग के लोग थे।
भगवा आतंक जैसी बहस इसी विस्फोट से पैदा हुई। भगवा वस्त्र पर खून के धब्बे लगे। इस बहस से अच्छे संत और साधु भी संदेह के घेरे में आ गए। यह उचित नहीं था। संघ परिवार ने इस शब्द का जमकर विरोध किया। विपक्ष ने इसे औजार बनाया। भगवा बहस चलती ही रही पर इसका आतंक और भी दुगुना हो गया। मालेगांव ने भाजपा को जमीन प्रदान की। मोदी का मीनार इसी ज़मीं पर आज बुलंद है।