महात्मा गांधी और गौसेवा

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महात्मा गांधी का जीवन सत्य, अहिंसा और करुणा के सिद्धांतों पर आधारित था। वे मानते थे कि किसी भी समाज की सभ्यता का स्तर इस बात से आंका जा सकता है कि वह अपने सबसे कमजोर और असहाय प्राणियों के साथ कैसा व्यवहार करता है। गाय, भारतीय संस्कृति में केवल एक पशु नहीं बल्कि मातृवत् पूजनीय स्थान रखती है। गांधीजी का गौसेवा के प्रति दृष्टिकोण भी इसी करुणा और अहिंसा के सिद्धांत से जुड़ा हुआ था।

गांधीजी ने गौसेवा को केवल धार्मिक कर्तव्य नहीं, बल्कि राष्ट्रीय और सामाजिक दायित्व माना। उनके विचार में गाय भारतीय ग्राम्य जीवन और कृषि का अभिन्न अंग है। वह न केवल दूध प्रदान करती है, बल्कि खेतों के लिए बैल भी देती है, जिससे किसानों की आजीविका चलती है। गांधीजी ने कहा था कि गाय हमारी माताओं की तरह है, जो बिना किसी स्वार्थ के हमें पोषण देती है।

गांधीजी ने गोहत्या को अहिंसा के सिद्धांत के विपरीत माना। उनका कहना था कि गोहत्या केवल धार्मिक भावना को ठेस नहीं पहुँचाती, बल्कि यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था और पर्यावरण दोनों के लिए हानिकारक है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि गौसेवा का अर्थ केवल गाय की पूजा करना नहीं है, बल्कि उसके पालन-पोषण, चिकित्सा, चारा और सुरक्षा की जिम्मेदारी लेना है।

गौसेवा के प्रति गांधीजी का दृष्टिकोण व्यावहारिक भी था। वे मानते थे कि अगर देश में गोसंरक्षण को सही ढंग से लागू किया जाए, तो न केवल किसानों की स्थिति सुधरेगी, बल्कि दुग्ध उत्पादन बढ़ेगा और प्राकृतिक खेती को भी बढ़ावा मिलेगा। गांधीजी चाहते थे कि गौशालाएं केवल धार्मिक स्थल न बनकर आधुनिक देखभाल और पशुपालन के केंद्र बनें।

अंततः, महात्मा गांधी के लिए गौसेवा एक आध्यात्मिक और मानवीय कर्तव्य था, जो अहिंसा, प्रेम और सहयोग की भावना को मजबूत करता है। उनके विचार आज भी प्रासंगिक हैं, क्योंकि गौसेवा के माध्यम से हम न केवल एक प्राचीन सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा करते हैं, बल्कि पर्यावरण संतुलन और ग्रामीण विकास में भी योगदान देते हैं।

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