
जबतक मेरी बातें आप तक पहुंचेगी तब तक कांवड़- यात्रा समाप्त हो चुकी होगी। पिछले कई दिनों से भिन्न-भिन्न चैनलों के एंकर उछल-उछल कर कांवड़ियों की शिव-भक्ति की चर्चा करते नजर आए। बहुत कोशिशें की गई कि पिछले साल की भांति इस बार भी हिंदू- मुसलमान किया जाय, पर मुसलमानों ने कोई मौका ही नहीं दिया। गोदी ही नहीं बल्कि इस गिरी हुई मीडिया को बहुत ही निराशा हाथ लगी और टीआरपी बढ़ाने की इनकी मंशा अधूरी रह गई।
जब इन मनबढ़ू कांवड़ियों को कोई मुसलमान हाथ नहीं लगा तो हिंदुओं पर हीं हाथ साफ करते नजर आए। जगह-जगह हुड़दंग हुआ। गाड़ियां तोड़ी गई। निर्दयता पूर्वक वाहन चालकों और यात्रियों की पिटाई की गयी। यहां तक कि सीमा पर जान की बाजी लगाने वाले सैनिक को भी नहीं छोड़ा। सैनिक की ऐसी बुरी तरह पिटाई की गई कि शर्म से हमारा माथा झुक गया। गर्व से नहीं बल्कि शर्म से कहना पड़ रहा है कि हम हिन्दू हैं। हिंदुओं द्वारा हिंदुओं का अपमान ऐसा कभी देखा नहीं गया।
इससे भी ज्यादा शर्म की बात है जब इन पर सरकार द्वारा फूल बरसाए गए। यथा राजा तथा प्रजा। सैयां भईल कोतवाल तो हम नंगा ही चलेंगे। रोपे पेड़ बबूल का तो आम कहां से होय। अगर इन्हीं लंपटों के भरोसे हिन्दू- राष्ट्र बनना है तो भगवान बचाए इस हिन्दू राष्ट्र को। सत्ता जब आम जनों के सवालों से घिरने लगी तो सरकार ने गिरफ्तारी का नाटक किया। गंभीर अपराध के बावजूद इन्हें थाना से छोड़ दिया गया। जबकि इनके साथ भी ऑपरेशन-लंगड़ा ही होना चाहिए ताकि ये कांवड़ उठाने लायक नहीं रहते, पर ऐसा नहीं हुआ।
हिंदुत्व के जिन मूल्यों और मानकों को आक्रांता नहीं तोड़ पाए उन मूल्यों को ये कथित हिन्दू ध्वस्त कर दे रहे हैं। हिंदुत्व को खतरा अब किसी मुसलमान या मुगल से नहीं बल्कि इन कथित हिंदुओं से ही है। जबतक ये बजरंगी रहेंगे समाज में, तो किसी बाबर की जरूरत ही नहीं होगी।
घर को आग लगी घर के चिराग से।
धार्मिक सरकार को राजपथ निर्माण की जरूरत ही नहीं है। इन्हें अलग से धर्मपथ का निर्माण करना चाहिए। इस धर्मपथ पर ताजिया निकले या कांवड़ निकले, किसी का कोई विरोध नहीं है। आस्था और उपासना एक निजी मामला है। यह दर्शन का विषय है, प्रदर्शन का नहीं।
हरिद्वार से लेकर दिल्ली तक हमने कांवड़-यात्रा को देखा। कुछ को छोड़कर सबकी मनोदशा एक जैसी। ऐसा मानो कांवड़िया बनकर समाज पर अहसान कर रहे हों। विकास के बनते टापू से धकियाये हुए हताश और निराश लोग ही इस हुजूम के हिस्सा नजर आए। किसी चित्रा त्रिपाठी या अंजना का बेटा भला कांवड़ क्यों उठाएगा? इन जैसों की संतानें तो विदेश में लिख पढ़ रहे हैं। इन्हें हिंदुराष्ट्र बने या न बने, क्या फर्क पड़ता है? दलितों का दम मारो दम और वंचितों का बोलबम क्या कुछ नहीं कहता है?
समाजवादियों से सुनता था कि साल भर तौल कम और सावन में बोल बम? हो सकता है कि सही माप तौल वाले भी इसमें शामिल हों, पर सवाल तो है ही कि घर में बुजुर्ग एक ग्लास पानी के लिए हांक लगाते हैं उन्हें नहीं मिलता है। किसी प्यासे को पानी नहीं मिलता। सूखते वृक्ष को काश कोई एक डब्बा भी जल देता तो यह धरती हरी भरी हो जाती। नदियों की निर्मलता बहाल करने के लिए कदम उठता तो शायद धर्म का ध्वज-पताका और भी बुलंदी से फहरता।
पाखंड चाहे हिन्दू का हो या मुसलमान का, कठोरता से विरोध करना चाहिए। धार्मिक होना मनुष्यता के लिए जरूरी है पर किसी पाखंड के लिए पूरी मनुष्यता को सूली पर चढ़ा दिया जाय, यह उचित नहीं।