तीर्थ से सेवा तक: एक महिला की गौशाला कथा

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भारत की परंपरा में तीर्थयात्रा केवल धार्मिक आस्था से जुड़ी नहीं होती, बल्कि यह जीवन के गहरे उद्देश्यों की ओर भी संकेत करती है। कई लोग इन यात्राओं से लौटकर समाज के लिए कुछ करने की प्रेरणा पाते हैं। ऐसी ही एक महिला की कहानी है, जिसने अपने जीवन का नया अध्याय गौसेवा को समर्पित कर दिया।

तीर्थ यात्रा की शुरुआत

वाराणसी से आईं सविता जी (काल्पनिक नाम) जीवन के आधे से अधिक वर्ष गृहस्थी और सामाजिक जिम्मेदारियों में व्यतीत कर चुकी थीं। जब उन्होंने अपने जीवन के संध्याकाल में चार धाम की यात्रा की, तो उनके भीतर गहरा आध्यात्मिक परिवर्तन हुआ। उन्होंने महसूस किया कि अब समय आ गया है कि वे शेष जीवन को किसी ऐसे कार्य में लगाएँ, जो न केवल आत्मा को शांति दे बल्कि समाज के लिए भी कल्याणकारी हो।

गौशाला से जुड़ाव

यात्रा के बाद वे हरिद्वार के पास स्थित कृष्णायन गौशाला पहुंचीं। वहाँ गायों की सेवा करते हुए उन्होंने महसूस किया कि यह केवल पशुओं की देखभाल नहीं, बल्कि एक सच्चा तप है। वे नियमित रूप से गौशाला में आने लगीं और धीरे-धीरे उनका जीवन वहीं रम गया।

सेवा का विस्तार

शुरुआत में वे केवल गायों को चारा खिलाने और पानी पिलाने का काम करती थीं। लेकिन समय के साथ उन्होंने बीमार गायों की देखभाल, दवाइयों की व्यवस्था और नए बछड़ों की परवरिश में भी योगदान देना शुरू किया। उनकी संवेदनशीलता और सेवा भाव देखकर अन्य लोग भी उनसे प्रेरित हुए और गौशाला में स्वयंसेवा करने लगे।

जीवन का नया अर्थ

सविता जी बताती हैं कि “गौशाला ने मुझे वह शांति दी, जो मैंने तीर्थों पर जाकर भी पूरी तरह अनुभव नहीं की थी। यहाँ सेवा के माध्यम से मैंने अपने भीतर ईश्वर का साक्षात्कार किया।”

उनकी सेवा भावना से न केवल गायों का जीवन सुधरा, बल्कि कई स्वयंसेवकों ने भी उनका अनुसरण करते हुए अपना समय गौशाला में लगाना शुरू कर दिया। इस प्रकार, एक महिला की तीर्थयात्रा ने गौसेवा की ऐसी धारा प्रवाहित की, जिसने अनेक लोगों के जीवन को स्पर्श किया।

यह कहानी इस बात का उदाहरण है कि आस्था और सेवा मिलकर किस प्रकार जीवन को अर्थपूर्ण बना सकते हैं। गौशाला केवल गायों का निवास स्थान नहीं है, बल्कि यह मानवता और करुणा का जीवंत केंद्र है।

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