एम अखलाक
आज जब देश आर्थिक विकास की दौड़ में जंगलों, नदियों और पर्वतों को पीछे छोड़ रहा है, तब यह सवाल उठता है कि क्या यह तरक्की उन समुदायों की कीमत पर हो रही है, जिन्होंने सदियों से इन प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा की है? झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा और अन्य आदिवासी बहुल क्षेत्रों में जबरन भूमि अधिग्रहण, खनन माफिया का बढ़ता प्रभाव और राजनीतिक उपेक्षा जैसी घटनाएं सामने आती हैं, तो यह साफ हो जाता है कि आदिवासी समाज एक बार फिर हाशिए पर धकेला जा रहा है। ऐसे समय में शिबू सोरेन का संघर्ष और नेतृत्व हमें याद दिलाता है कि अधिकार केवल मांगने से नहीं, बल्कि संघर्ष और संगठन के बल पर हासिल होते हैं।
शिबू सोरेन का जीवन कोई किताबों में पढ़ा जाने वाला आदर्श नहीं, बल्कि जमीन पर लिखा गया वह अध्याय है, जिसमें आदिवासी चेतना, प्रतिरोध और स्वाभिमान की स्याही से लिखा गया है। एक ऐसे समय में जब आदिवासी जनता साहूकारों और जमींदारों के शिकंजे में थी, शिबू सोरेन ने अपने गांव-घर से निकलकर ‘जल, जंगल और जमीन’ की रक्षा के लिए संगठित आंदोलन खड़ा किया। उनका नेतृत्व नेताओं की परंपरागत परिभाषा से अलग था। वह कंधे पर हल लेकर खेत जोतने वाला नेता थे, जो भाषण से पहले श्रम करता था और भाषण के बाद जनता के बीच बैठता था। शिबू सोरेन ने यह भलीभांति समझ लिया था कि सत्ता संरचना तब तक नहीं झुकेगी, जब तक वंचित समुदाय अपने अधिकारों को संगठित होकर मांगने के बजाय छीनने की ताकत न दिखाए। उन्होंने झारखंड मुक्ति मोर्चा के माध्यम से न केवल एक राजनीतिक मंच तैयार किया, बल्कि आदिवासी चेतना को एक वैचारिक आंदोलन में रूपांतरित किया। यह आंदोलन केवल राजनीतिक नहीं था, यह एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण था, जिसने आदिवासियों को यह एहसास दिलाया कि वे केवल वनवासी नहीं, बल्कि इस भूमि के वास्तविक स्वामी हैं। आज जबकि झारखंड और अन्य राज्यों में खनन परियोजनाओं के नाम पर आदिवासियों को उनकी पुश्तैनी जमीन से बेदखल किया जा रहा है और उनकी संस्कृति, भाषा तथा परंपराएं धीरे-धीरे नष्ट की जा रही हैं, तब गुरुजी का जीवन हमें यह चेतावनी देता है कि अगर संगठन नहीं बना तो अस्तित्व भी नहीं बचेगा। वर्तमान नेतृत्व में जहां जमीन से जुड़ाव की कमी दिखती है, वहीं शिबू सोरेन का उदाहरण बताता है कि टिकाऊ परिवर्तन केवल वही ला सकता है जो अपने लोगों के साथ जिए, लड़े और जख्म सहे। शिबू सोरेन न कभी बड़ी-बड़ी घोषणाओं के लिए जाने गए और न ही सत्तालोलुपता के लिए। उन्होंने यह सिखाया कि नेता वह नहीं होता जो मंच से भाषण देता है, बल्कि वह होता है जो संकट में सबसे पहले अपने लोगों के बीच खड़ा दिखाई दे। आज की राजनीति में जब जमीनी सच्चाइयों से कटे हुए फैसले लिए जा रहे हैं, तब गुरुजी का नेतृत्व एक आदर्श बनकर सामने आता है। शिबू सोरेन का संघर्ष केवल इतिहास नहीं, बल्कि वर्तमान और भविष्य की दिशा है। उनका जीवन यह संदेश देता है कि जब नेतृत्व जड़ों से जुड़ा होता है, तभी वह परिवर्तन की नींव बन सकता है। आज जब आदिवासी समाज पुनः चुनौतियों के घेरे में है, तब हमें गुरुजी के सिद्धांतों की ओर लौटना होगा- संगठन, संघर्ष और स्वाभिमान के रास्ते पर चलकर ही न्याय और अधिकार की लड़ाई जीती जा सकती है।
बहरहाल, दिशोम गुरु (लड़ने वाला) शिबू सोरेन भौतिक रूप से अब हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके विचार हमेशा वंचित समाज को मशाल बनकर राह दिखाते रहेंगे।
(लेखक- लोक संस्कृति पर अध्ययन व लेखन कार्य में संलग्न है।)

(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)