ब्रह्मानंद ठाकुर
मेरे घर के सामने एक किसान हल्दी की फसल लगाए हुए हैं। उसकी दो दिनों से निकौनी की जा रही है। जाहिर है, निकौनी में काफी खर्च आएगा। मेरे साले ने भी हल्दी की खेती की है। कल उन्होने पेस्टिसाइड खरीदा। बता रहे थे कि हल्दी की खेत में काफी खरपतवार उग आया है। इस पेस्टिसाइड के छिड़काव से खर-पतवार नियंत्रित होगा। यह सब देख- सुन कर मुझे पुरानी पलवार तकनीक की याद आ गई।
खेतों में कुछ खास फसलों के बीज बोने के बाद मिट्टी की ऊपरी परत को कृषि अवशेषों से ढकने की प्रक्रिया को पलवार कहा जाता था। आज से काफी पहले किसान खेतों में फसल लगाने के बाद यह प्रक्रिया करते थे। ऐसा करने से मिट्टी में नमी बनी रहती थी। इस कारण सिंचाई की जरूरत काफी कम पड़ती थी। मिट्टी का तापमान स्थिर बनाए रखने में भी मदद मिलती थी। खर-पतवार नियंत्रित रहता था और पौधे का विकास काफी तेजी से होता था। किसान आलू, हल्दी, आदी, ओल, लौकी, खीरा, भिंडी, प्याज, अरवी, की रोपाई के बाद यह प्रक्रिया अपनाते थे। इसमें कोई अतिरिक्त खर्च नहीं था। पलवार के कारण खेत में जंगल नहीं उगते तो निकौनी के खर्च की बचत होती थी। कतिपय सब्जियों और मसालों का बीज जब नर्सरी में लगाया जाता था, तब अनिवार्य रूप से नर्सरी की ऊपरी सतह को पुआल, भूसा, खरपतवार आदि से ढक दिया जाता था। दो- तीन दिनों के अंतराल पर बीज स्थली में नमी बनाए रखने के लिए इसके ऊपर से पानी का छिड़काव किया जाता था। बीज का अंकुरण हो जाने के बाद ढके गये पलवार को हटा दिया जाता था। एक सप्ताह में बीज स्थली में पौधे लहलहाने लगते थे। फिर किसान उसे उखाड़ कर खेत में रोपाई करते थे। यह तकनीक हमारे पूर्वजों की देन थी, जो पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही थी। तब कृषि के वैज्ञानिक तकनीक का दूर-दूर तक कोई नामोनिशान नहीं था। हमारे पूर्वजों ने अपने अनुभवों के आधार पर कृषि के क्षेत्र में जो ज्ञान हासिल किया, उसे विरासत के तौर पर पुश्त दर पुश्त अपने उत्तराधिकारियों को सौंपते रहे। वे अपने पैर की धमक से भांप लेते थे कि किस जगह कुआं खोदने पर मीठा पानी मिलेगा और किस जगह कुआं खोदने पर खाडा पानी मिलेगा। फल- सब्जी और बीजों के संरक्षण की उनकी अपनी तकनीक होती थी। मक्का और धान के बीजों को कैसे अगले फसल तक के लिए सहेज कर रखा जाता था, उसका मैं चश्मदीद हूं। धान के पुआल का मोर बना कर उसमें धान का बीज रख कर बाहर से मिट्टी का लेप लगा दिया जाता। क्या मजाल की उसमें कीड़ा पड़ जाए! इसी तरह मकई की बालियों को छिलका समेत झोरांटी बनाकर दरवाजे पर खुले में गाड़े गये मोटे खम्भे के ऊपरी सिरे से टांग दिया जाता था। अगले सीजन में उसी बीज से बुआई होती थी। तो मैंने बात शुरू की थी पलवार तकनीक की। यह तकनीक हमारे पूर्वजों की देन थी। समय के साथ हम उसे भुला दिए या यों कहें कि भूलने को मजबूर कर दिया गया। आज फिर कृषि वैज्ञानिक उसी प्राचीन तकनीक को अपनाने पर जोर देने लगे हैं। उसका नाम रखा है- मल्चिंग तकनीक। नाम चाहे जो भी हो, यह तरीका कारगर और किफायती भी। नाम में क्या रखा है भाई!