गाय और रामायण — श्रीराम का गौसेवा से जुड़ाव
भारतीय संस्कृति में गाय को “गौमाता” कहा जाता है और उसे धार्मिक, सांस्कृतिक व आध्यात्मिक दृष्टि से सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। हमारे प्राचीन ग्रंथों, विशेषकर रामायण, में भी गौसेवा का महत्त्व अनेक बार वर्णित है। श्रीराम जैसे आदर्श पुरुष और मर्यादा पुरुषोत्तम के जीवन में गाय के प्रति आदर, श्रद्धा और संरक्षण का भाव स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है।
रामायण में गाय का महत्त्व:
वाल्मीकि रामायण, तुलसीदास कृत रामचरितमानस और अन्य रामायण-आधारित ग्रंथों में गायों को धन, धर्म और करुणा का प्रतीक माना गया है। उस काल में गाय केवल आर्थिक समृद्धि का साधन नहीं थी, बल्कि गृहस्थ, ऋषि-मुनि और राजाओं की आत्मिक पूर्ति का माध्यम भी थी।
श्रीराम और गौसेवा के प्रसंग:
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गुरुकुल जीवन में गौसेवा:
श्रीराम ने बाल्यकाल में ऋषि वशिष्ठ के आश्रम में शिक्षा ग्रहण करते समय गौशाला में गायों की सेवा की। वे उन्हें चारा देना, पानी पिलाना और स्वच्छता बनाए रखना जैसे कार्य स्वयं करते थे। यह गौसेवा उनके विनम्र, करुणामय और धर्मपरायण स्वभाव का प्रतीक है। -
गौवध से घृणा:
श्रीराम का चरित्र अहिंसा, दया और धर्म पर आधारित था। रामायण में कहीं भी ऐसा नहीं आता कि उन्होंने या उनके राज्य में गौहत्या को अनुमति दी गई हो। उन्होंने सदा गौवंश की रक्षा को राज्य धर्म माना। -
राजधर्म और गौसंरक्षण:
अयोध्या लौटने के बाद जब श्रीराम ने राज्याभिषेक के पश्चात रामराज्य की स्थापना की, तो सबसे पहले उन्होंने धर्म, कृषि, गोपालन और गौसंरक्षण को प्राथमिकता दी।
रामराज्य में गोपालक, किसान और ऋषि-मुनि निर्भय होकर गौधन का पालन करते थे। ऐसा काल था जब गाय और ब्राह्मण की रक्षा को राज्य का कर्तव्य माना गया। -
गौदान का महत्त्व:
रामायण में यह भी वर्णित है कि जब ऋषियों और ब्राह्मणों को गौदान दिया जाता था, तब श्रीराम स्वयं उपस्थित रहते थे और उसे पुण्य कर्म मानते थे। गौदान को मोक्ष प्राप्ति का मार्ग कहा गया है।
गाय और राम की भक्ति का सांस्कृतिक प्रभाव:
श्रीराम के आदर्शों से प्रेरित होकर भारतीय समाज में गौसेवा को धार्मिक अनुष्ठानों का हिस्सा बना दिया गया। आज भी विवाह, यज्ञ, संस्कारों में गौ-पूजन, गौदान और गौग्रास जैसे कृत्य देखे जाते हैं। यह रामायण की प्रेरणा से ही उत्पन्न परंपरा है।
श्रीराम का जीवन धर्म, दया और करूणा से परिपूर्ण था। उन्होंने गायों को केवल पशु नहीं, बल्कि “माता” के रूप में सम्मानित किया। रामायण हमें सिखाती है कि गौसेवा केवल धार्मिक कर्तव्य नहीं, बल्कि मानवता का प्रतीक है।
आज जब समाज गौहत्या, गौ-उत्पीड़न जैसी समस्याओं से जूझ रहा है, तब श्रीराम की गौसेवा परंपरा को आत्मसात करना न केवल संस्कृति की रक्षा है, बल्कि आध्यात्मिक पुनरुत्थान की दिशा में एक कदम है।