डॉ योगेन्द्र
हार जीत हो गई। गुलाल भी उड़ा लिया। पटाखे भी फोड़ लिये। अब आगे क्या हो? क्या शिक्षा इसी तरह आम जनता के हाथों से फिसलती जाय? या चिकित्सा में लूटपाट मची रहे? या देश की बड़ी आबादी को ठीक से खाना भी न मिले? या यह कि सरकार के खिलाफ बोल दें तो आप आतंकवादी या अर्बन नक्सल बन जायें? या फिर चुनाव के समय जो वादे किये गये थे, उन्हें पूरे करवाया जाय? आख़िर हो क्या? ईवीएम का हैक हो या न हो, सरकार तो बन ही जायेगी, क्योंकि कहते तो हैं कि लोकतंत्र में लोक राजा होता है, लेकिन सच नहीं है। सच यह है जो सरकार बना लेता है, चाहे ईवीएम हैक कर, या पैसे लुटा कर या जनता को वादों का घुस देकर, वही राजा होता है। चुनती जनता है और जनता ही उससे शासित होती है। सरकार से पाँच वर्ष सवाल पूछना भी मुश्किल होता है। मंत्री – संतरी या सांसद, विधायक से कभी कभार भेंट होती है, वरना वे ग़ायब ही रहते हैं। पहले विधायक गाँव घर में घूमते थे, लेकिन अब तो वे दिन गये। पहले हज़ार बजार से भी चुनाव जीता जाता था। अब करोड़ों का चक्कर है। साइकिल और खटारा गाड़ी नेताओं के पास होती थी, लेकिन अब तो मुखिया भी स्कॉर्पियो से नीचे नहीं उतरता। वैसे अब भी अपवाद हैं, पर ये अब लुप्त प्रायः प्राणी हो गये हैं।
ईवीएम से चुनाव रोका जाना चाहिए। जहॉं इसका जन्म हुआ, वहाँ भी संदेह के घेरे में है। अमेरिका, जर्मनी, जापान- अनेक देशों में इस पर रोक है। जिस दिन संदेह हुआ, उसी दिन से रोक लगा दी गई। हम डिबेट करते रहते हैं। मुखिया, पार्षद आदि के चुनाव मतपत्र पर ही होते हैं, तो फिर विधानसभा या लोक सभा का चुनाव क्यों नहीं? दुर्भाग्य का पहलू एक और है, जिसमें चुनाव आयुक्त तटस्थ नहीं दिखते। एक चुनाव में प्रधानमंत्री के हेलिकॉप्टर की जाँच एक आईएएस अधिकारी ने कर ली थी। उसे सस्पेंड कर दिया गया। क्यों? चुनाव में प्रधानमंत्री हो या कोई हो, एक आम नागरिक हैं। आम नागरिक की जाँच हो सकती है, विपक्ष के नेताओं की भी हो सकती है, तो प्रधानमंत्री का क्यों नहीं? चुनाव आयोग का यह दृष्टिकोण बेईमानी वाला है। चुनाव आयोग एक स्वतंत्र लोकतांत्रिक संस्था है। वह सिर्फ़ संविधान से बंधा है। नेताओं की कुर्सियों की नाप के अनुसार वह फ़ैसला नहीं ले सकता। अगर चुनाव की आचारसंहिता यह कहती है कि नफ़रत भरे बयान नहीं दे सकते, किसी जाति या संप्रदाय के खिलाफ बयान नहीं दे सकते, तो फिर चुनाव में इसका पालन क्यों नहीं होता है? ऐसे बयान प्रधानमंत्री दें या विपक्ष के नेता – उन पर कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए, मगर ऐसे मामलों में चुनाव आयोग मूक बना रहता है। वह एक अदद नोटिस भी नहीं देता। वह अपनी ही चमड़ी बचाने में लगा रहता है। न उसमें हिम्मत है, न न्याय दृष्टि- नतीजा है कि आदर्श चुनाव पर ख़तरा बढ़ता जा रहा है। कोई उम्मीदवार या उसके लोग चुनाव में पैसे बाँटते हुए पकड़े जाते हैं, तो वैसे उम्मीदवार या पार्टी को प्रतिबंधित क्यों नहीं किया जाता? सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बांड को अवैध घोषित किया, लेकिन अवैध पैसे पर कोई कार्रवाई नहीं की, न उसने साफ़ साफ़ बताया कि ऐसे पैसे क्यों और कहाँ से आये थे? जब देश का नेता और पार्टी किसी पूँजीपति को बचाने में लग जाये, तो सोचना चाहिए कि लोकतंत्र का गला घोंटा जा रहा है। जो भी हो, चुनाव के बाद सरकार जिसकी भी हो, उससे हर एक को सवाल करने और अपनी माँग के लिए अड़ना ज़रूरी है।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)