बाबा विजयेन्द्र
समय-समय पर यमुना के सवाल सुलगते ही रहे हैं। यमुना की सैया पर समाज ने अपना पैर पसार लिया है। इस रिवर-बेड पर कब्ज़ा किसका हो इसके लिए हुकमरानों की आपसी लड़ाई जारी है? सभी सरकारों ने मिलकर यमुना की सामूहिक हत्या की है। खेल गांव का बसना, अक्षरधाम का बनना और रविशंकर के कार्यक्रम, दिल्ली की गंदगी और फैक्ट्री से निकले जहरीले कचरे का यमुना में प्रवाहित करने के प्रश्न, बड़े प्रश्न रहे हैं।
हजारों करोड़ रूपये यमुना में बह गए, पर यमुना की कालीमा मिट नहीं पा रही है। बहती यमुना में भी हाथ धोया जा सकता है। यहां की सरकारों ने नया मुहाबरा गढ़ दिया है। राजेंद्र सिंह के साथ यमुना के प्रश्न पर मेरा भी प्रतिरोध हुआ था और यमुना किनारे हम कई दिनों तक धरणा भी देते रहे। विकास के मॉडल पर लेख लिखते रहे, बहस करते रहे। पर हुआ कुछ नहीं। उत्तर तो नहीं मिला पर यमुना के प्रश्न और पहाड़ बन गए हैं।
छठ पूजा के कारण यमुना पर चर्चा हो रही है। धार्मिक सवाल न हो तो कौन यमुना की सुधि लेने के लिए बैठा हुआ है? यमुना दिल्ली के जहरीले निजाम के बदतर इंतज़ाम की कहानी बयां कर रही है। तक्षक नाग के फन को तो कुचला जा चुका है पर व्यवस्था में बैठे जिन्दा नाग कैसे नियंत्रण में आएगा, सोचना जरूरी है?
दिल्ली की सरकार की पहली प्राथमिकता थी यमुना को साफ करना, पर यमुना आजतक विषैली बनी हुई है। यमुना के दामन में झाग ही झाग है। दिल्ली की प्यास बुझ रही है पर यमुना का प्यास कौन बुझाएगा? यमुना के किनारे बांसुरी की धुन अब सुनाई नहीं देती। यमुना के किनारे खड़ी ‘आप’ की दीन हीन व्यवस्था बीन बजा रही है। हाँफती और दम तोड़ती यमुना के मूँह से झाग निकल रहा है। आप के मालिक केजरीवाल की करकश ध्वनि एक नये प्रकार की पॉलिटिकल-पॉलियूशन पैदा कर रही है। बात बनाने की कला ही है इनके पास। यह केवल आप की नहीं बल्कि भाजपा कांग्रेस सब की है।
छठ पूजा शुरू हो गयी है। इस लोकपर्व को मनाने की कोई तैयारी ही नहीं है। व्रती व्यथित हैं। आखिर विष का अर्घ्य कैसे दिया जायेगा? बिहार और उत्तर प्रदेश के लोग ही इस पर्व को मनाते हैं। यह पर्व सामाजिकता, समासिकता और समरसता का महान पर्व है। यह पर्व किसी भी कर्मकांड की मुक्ति का सन्देश देता है। भारतीय समाज की यह खासियत है कि यह उगते सूर्य ही नहीं बल्कि डूबते सूर्य का नमन करता है।
हमारी दृष्टि उपयोगितावाद की नहीं है। हमारी दृष्टि तो कृतज्ञता की दृष्टि रही है। पर कृतघ्न सरकारों को कौन समझाये कि पूर्वांचली के लिए कृतघ्नता की नहीं, बल्कि कृतज्ञता की जरुरत है। यूज कर फेंकना सियासत की खास पहचान है। शायद इस बार लफ़्फ़ाज सरकार को भी बिहार और यूपी के लोग अर्घ्य प्रदान कर देंगे? छठ व्रती अभी खासे गुस्से में हैं।
बिहार और यूपी के लोग इनके लिए एक बीमारी हैं। इस बीमार राज्य के इस पर्व का इनके लिए महत्व ही क्या है? पूर्वांचल के लोग इनके लिए एक वोट बैंक भर है। इनकी आस्था से दलों का क्या लेना देना?
इन्हें तो घाट-घाट का पानी पीना है। छठ घाट की भला इन्हें क्या चिंता होगी? आस्था से खिलवाड़ इनके लिए भारी पड़ेगा।