डॉ योगेन्द्र
चुनाव आ रहा है, जा रहा है। कोई जीत रहा है, कोई हार रहा है। कोई कह रहा है कि देश विकसित हुआ है। कोई कह रहा है कि, क़र्ज़ में डूबा घर कभी विकसित नहीं होता। हरेक का अपना रोना है और हरेक को अपना गाना। गाने पर याद आया। आज मैं सुबह टहलने निकला तो कहीं दूर से आवाज आ रही थी- ऐ मालिक तेरे बन्दे हम…. ऐसे हों हमारे करम….. नेकी पर चले और बदी से टलें,…… ताकी हँसते हुए निकले दम। नेकी पर चलने की ख्वाहिश कितनी खूबसूरत ख्वाहिश है! तब भी इस ख्वाहिश के बाद भी- ‘ये अंधेरा घना छा रहा, तेरा इंसान घबरा रहा। हो रहा बेख़बर, कुछ ना आता नज़र, सुख का सूरज छिपा जा रहा।’ नेकी पर चलते हुए सुख का सूरज डूब जाता है, तब लाचार आदमी परम सत्ता से प्रार्थना करता है -’है तेरी रोशनी में जो दम, वो अमावस को कर दे पूनम।’ नेकी पर चलने वाला आदमी अपनी कमजोरियों को भी स्वीकार करता चलता है – बड़ा कमज़ोर है आदमी, अभी लाखों हैं इस में कमी।’ इंसान अपनी कमजोरियों को स्वीकार करता है। सत्ता में बैठे लोग नहीं। वे लगभग इंसान नहीं होते। मैं जैसे ही सड़क पर निकलता हूं। वैसे ही बंसखोरों की झोपड़ी दिखाई पड़ती है। छठ पर्व आने वाला है। वे बांस की पहले खपच्चियां निकालते हैं और फिर सूप बीनते रहते हैं। उनके नंग धड़ंग बच्चे सड़क किनारे ही खाना खाते रहते हैं। इंसानी सत्ता होती तो अपनी असफलताएं स्वीकार करती, लेकिन यहां तो ढोल में ही पोल है। वह बजे तो कैसे बजे?
महात्मा बुद्ध, गांधी, ईसा जुल्म से लड़ते रहे और कहते रहे -जब जुल्मों का हो सामना, तब तू ही हमें थामना। वो बुराई करें, हम भलाई करें, न ही बदले की हो भावना। ‘शत्रु से भी मित्रता का भाव – अद्भुत रहे होंगे ऐसे लोग। दुनिया इसीलिए आज भी उनसे प्रेम करती है। नफ़रत के खिलाफ उन्होंने प्रेम और करूणा का संदेश दिया था अब तो हालात यह है कि दुश्मन तो दुश्मन, दोस्त भी खंजर चलाते हैं। कोई कुछ कहे, करें, लेकिन मनुष्यता का यह चरम उदार रूप तो हैं ही। मैदान में टहलते हुए तीन खंजन पक्षी दिख गया। चुलबुली चिड़िया, अपूर्व गति, आंखें चमकती हुई। खंजन कभी कभार ही अब दिखता है। खंजन का उतरना बरसात का अंत का भी संकेत है। तुलसीदास लिखते हैं -वर्षा विगत शरद ऋतु आई। लछमन देखहु परम सुहाई॥ फूलें कास सकल महि छाई। जनु वर्षा कृत प्रगट बुढ़ाई॥ वर्षा का बुढ़ापे का प्रकटीकरण हो रहा है। सफेद कास हवा में झूल रहे हैं। सफेद कास जैसे बूढ़े की दाढ़ी हो।
कल शाम को छत पर बैठा था तो आकाश में चांद दिखा। पता चला कि शरद का चांद है। चांदनी अमृत बरसाती है। पत्नी ने खीर बना कर छत पर रखा तो यह अहसास गहरा हुआ। शरद के चांद से जुड़ी कितनी ही बातें याद हो आयीं। शरद में दुर्गा, काली, दीपावली, छठ पर्व मनाया जाता है। वृक्ष पुरानी पत्तियों से नाता तोड़ने लगता है। जिन पत्तियों पर वृक्ष इतराता था, वे पत्तियां अब पीली पड़ रही हैं। पीली पत्तियां कम खूबसूरत नहीं होती, लेकिन वृक्ष के काम के लायक भी नहीं रहतीं। कभी-कभी सौंदर्य निष्पाप होता है। वह किसी स्वार्थ से बंधा नहीं होता। बंधनमुक्त सौंदर्य हमारी चेतना को समृद्ध कर देता है। दुनिया स्वार्थ बद्ध है। प्राकृतिक सौंदर्य उसे मुक्ति प्रदान करता है। मुक्ति और कहीं नहीं है। यहीं है, यहीं है। बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं में लटकते पौधों को देखता हूं तो लगता है कि मनुष्य वही है, वहीं है। परिस्थितियों ने उसे हवा में टांग दिया है।

(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)