जब राष्ट्रकवि दिनकर वाइस चांसलर बने

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राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने मैट्रिक की परीक्षा में पूरे विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान प्राप्त किया। इंटर में नामांकन लेने पहुँचे पटना कॉलेज पटना। बिहार का सबसे पुराना कॉलेज । उन्होंने सोचा कि इंटर में एक विषय हिन्दी भी रखें। हिन्दी पढ़ने की उनकी दिली इच्छा थी। उन दिनों पटना कॉलेज के प्रिंसिपल एक अंग्रेज थे। उनका नाम था मि हार्न । प्रिंसिपल ने उन्हें हिन्दी लेने की इजाज़त नहीं दी। इंटर पास कर वे बी ए में पहुँचे । उन्होंने फिर कोशिश की। इस बार प्रिंसिपल थे- मिस्टर लैंबर्ट । लैंबर्ट ने कहा- ‘ हिन्दी का साहित्य दरिद्र है। मैं इस भाषा को प्रोत्साहन नहीं दे सकता।’ दिनकर हर हाल में हिन्दी पढ़ना चाहते थे। वे पहुँचे सर्चलाइट अख़बार के संपादक मुरली बाबू के यहाँ । उन्होंने वहाँ अपना दुखड़ा रोया। मुरली बाबू ने तत्कालीन शिक्षा मंत्री सर फखरूउद्दीन के यहाँ पैरवी की। शिक्षा मंत्री सर फखरूद्दीन ने शिक्षा निदेशक से कहा। शिक्षा निदेशक थे मि फौकस । मि फौकस शिक्षा मंत्री की बात से सहमत नहीं हुए । नतीजा हुआ कि दिनकर की हिन्दी पढ़ने की हसरत हसरत ही रह गयी।

हिन्दी के बारे में ऐसी राय थी और व्यवहार था शिक्षकों का। इसी हिन्दी का दामन थाम कर दिनकर जी राष्ट्रकवि हुए। 1964 में वे ति माँ भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति बन कर आये थे । बिहार में उस वक़्त मुख्यमंत्री के बी सहाय थे। मुख्यमंत्री के बी सहाय ने कहा कि आप लोक सेवा आयोग का सदस्य बन जाइए। दिनकर को वाइस चांसलेरी पसंद थी। यह जानकर मुख्यमंत्री ने कहा-‘ आपकी सेहत को कमजोर जान कर सरकार ने आपको आयोग में भेजना चाहा था। मगर उसे आपने माना नहीं ।अब मेरा शाप है कि आप वाइस चांसलर हो जाएँ।” इसके बाद वे वाइस चांसलर बने। वे भागलपुर विश्वविद्यालय को बहुत चाहते थे। एक तो घर का विश्वविद्यालय था। दूसरे इसी विश्वविद्यालय ने उन्हें डॉक्ट्रेट की डिग्री दी थी। वाइस चांसलेरी के लिए उन्होंने संसद की सदस्यता छोड़ी थी। मुर्ग़ा- मुर्ग़ी बेच कर एक मोटरकार ख़रीदी। विश्वविद्यालय के काम में पहले तो मनोयोग से लगे। उनसे उनकी कविता छूटी। उनका अध्ययन बंद हुआ और फिर एक-एक दोस्त छूटने लगे। इधर विश्वविद्यालय में तरह-तरह के हंगामे । जैसे ही विश्वविद्यालय में योगदान किया , वैसे ही एक कॉलेज में गॉंव वाले और लड़कों के बीच जम कर मारपीट हो गई । बहुत मुश्किल से मामला सलटा । उन्होंने देखा कि कई कॉलेजों में परीक्षा में जम कर चोरी होती है। उन्होंने सेंटर बदला। परीक्षा रद्द की तो समाज के अग्रणी लोग ही विरोध में उतर आये। अग्रणी लोगों में विधायक पहली पंक्ति में रहे। सिंडिकेट में भी अक्सर अधिकारियों और सदस्यों में झगड़े होते रहते। आख़िर उन्हें भयानक ब्लड प्रेशर हो गया। स्वास्थ्य गिरने लगा।

तंग आकर उन्होंने अपना इस्तीफ़ा राज्यपाल को भेज दिया। महीनों तक उनका इस्तीफ़ा मंज़ूर नहीं हुआ । आख़िर वे अपना बोरिया बिस्तर बॉंध कर पटना आ गये और चांसलर को फ़ोन किया-‘ हुज़ूर, आप इस्तीफ़ा मंज़ूर करें या न करें , मैंने तो अपने आप को रिलीव कर लिया ।’ दिनकर जी का विश्वविद्यालय सुधारने का सपना अधूरा ही रहा। इसी विश्वविद्यालय के कुलपति बनकर आये – प्रो एन के झा। उन्होंने ही मुझे पहले प्रोक्टर और बाद में डी एस डब्ल्यू बनाया । तनाव और परेशानी के कारण ही कुलपति आवास में उनकी मृत्यु हुई । कुलपति आवास दो तल्ले का है। ऊपरी तल्ले में उनकी मृत्यु हुई । अब जो भी कुलपति आते हैं, वे ऊपरी तल्ले पर नहीं रहते। उन्हें भय लगता है कि कहीं वे भी काल कवलित न हो जायें। अब कुलपति आते हैं, जाते हैं । विश्वविद्यालय को सुधारने का सपना वे देखते भी नहीं हैं। एक तो कुलपति नियुक्ति में ही घोटाला है । नियुक्ति के बाद कुलपति पद रक्षण में ही लगे रहते हैं । नतीजा है कि नाम है विश्वविद्यालय और काम है स्थानीय बच्चों को डिग्री बाँटना। सोचा गया था कि छात्रों को विश्वविद्यालय में वैश्विक ज्ञान और समझ हासिल होगा, लेकिन बेचारा ज्ञान किसी कोने में टेसुए बहा रहा है और समझ के बारे में कुछ नहीं कहना ही बेहतर । सेमेस्टर सिस्टम ने तो बची खुची शिक्षा को भी बर्बाद कर दिया है। कहना चाहिए अब विश्वविद्यालयों में पढ़ाई नहीं हो रही है, बल्कि ‘ खेला’ हो रहा है। पढ़ाई का खेला। न पढ़ाई रहेगी, न विश्वविद्यालय रहेगा। विश्वविद्यालय नहीं रहेगा तो शिक्षक नहीं रहेंगे । शिक्षक नहीं रहेंगे तो सरकार को वेतन नहीं देना पड़ेगा । निर्धन जनता के बेटे- बेटियाँ मुप्त में पढ़ लिख रहे थे। अब उनके रास्ते में रोड़े ही रोड़े हैं। आगे आगे देखिए होता है क्या?

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