शारदा सिन्हा होने का अर्थ !

बिहार के सुपौल जिले के संगीतमय परिवार में जन्मी शारदा सिन्हा

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डा. सुधांशु कुमार

शारदा सिन्हा होने का अर्थ है- लोक संस्कृति, लोक आस्था और लोक संगीत की गहरी समझ के साथ लोगों की आत्मा में घुल-मिलकर उससे एकाकार हो जाना। लोक संगीत की साधना के जिस शिखर पर वह स्थापित हो चुकी हैं, उसके फलस्वरूप उन्हें लोकगीतों की लता मंगेशकर कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति न होगी।
1 अक्टूबर 1952 को बिहार के सुपौल जिले के संगीतमय परिवार में जन्मी शारदा सिन्हा ने शास्त्रीय संगीत में अपनी शिक्षा पूरी की। अपने करियर की शुरुआत उन्होंने 1980 में ऑल इंडिया रेडियो और दूरदर्शन से की, लेकिन उन्हें विशेष ख्याति छठ के गीतों से ही मिली। लोकगायकी के क्षेत्र में विशेष योगदान के लिए
भारत सरकार द्वारा उन्हें 1992 में पद्म श्री, 2006 में पद्म भूषण और 2018 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया। इसके अलावा भी दर्जनों पुरस्कारों से इनकी गायकी को नवाजा गया। लोकगीतों के अलावा बॉलीवुड में भी उन्होंने कई यादगार गीत दिए। फिल्म ‘मैंने प्यार किया’ में ‘कहे तोसे सजना ये तोहरी सजनिया/पग पग लिये जाऊँ, तोहरी बलइयाँ। अनुराग कश्यप की ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर 2’ में ‘तार बिजली से पतले हमारे पिया/ओह री सासु बता तूने यह क्या किया/सुखके हो गए है छुहारे पिया/बेचारे पिया सब हारे पिया, कुछ खाते नहीं हैं हमारे पिया।

यह उनके जादुई स्वर का ही कमाल है कि कोई भी लोक-आयोजन उनके गीतों के बिना अधूरा सा प्रतीत होता है। बेटी की शादी के विभिन्न रस्म जैसे- तिलक, फलदान, जनेऊ, पूजा, मटकोर, हल्दी, मंडपाच्छादन, दुअरलगाई, मंगढक्की, मझक्का, भतखई, चुरखई, बेटी विदाई, कोहबर, गोदभराई आदि सभी के लिए उन्होंने एक से बढ़कर एक जादुई लोकगीत गाए जिसके साथ ही संबंधित सभी आयोजन पूर्णता को प्राप्त प्रतीत होते हैं। जिस लोक आयोजन में उनके लोकगीतों की अनुपस्थिति पायी जाती है, ऐसा लगता है कुछ छूट रहा है, कुछ अधूरा सा है, जैसे कोई ऐसा अतिविशिष्ट अतिथि आनेवाला था जो नहीं आया और जिसके बिना यह उत्सव औपचारिक बनकर अपना ‘श्री’ खो रहा है। उनके जादुई स्वर का ही प्रभाव कहा जाएगा कि शादी-बियाह के साथ-साथ विभिन्न संस्कार गीतों के माध्यम से वह उत्सव को महोत्सव में रुपांतरित कर देती थीं। मधुर स्वर, शब्द एवं संगीत के मणिकांचन संयोग के साथ ठेठ देसीपन का जो अंदाज उनके लोकगीतों में पाया जाता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। उनके दर्जनों लोकगीत ऐसे हैं जो लोगों की जबान पर रच-बस गए हैं जैसे – राजा जनक जी के बाग में अलबेला रघुवर आयो जी। मोहि लेलकैन सजनी मोरा मनवा पहुनवा राघो। राम जी से पूछे जनकपुर के नारी बता द बबुआ लोगवा देते काहे गारी। उग हे सुरज देव भेल भिनसरवा अरग के रे बेरवा हो ….! ऐसे एक से बढ़कर एक सैकड़ों लोकगीत गाकर उन्होंने लोकगायकी को जो शिखर पर पहुंचाया, वह वंदनीय है, स्तुत्य है! महापर्व छठ के इस अवसर पर वाग्देवी की इस पुत्री को भावभीनी श्रद्धांजली।

                                                                                                   (लेखक शिक्षाविद स्तंभकार व व्यंग्यकार हैं)

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