डॉ योगेन्द्र
वर्ष 24 का अंतिम महीना आ गया है। ठंड ठीक से उतरी नहीं है, ख़ास कर बिहार के गंगा किनारे। कल बूढ़ी गंडक के शहर के पास था, आज गंगा के पास हूँ। बूढ़ी गंडक के पास वाले शहर में गंगा बेसिन की समस्याओं को लेकर त्रिदिवसीय सम्मेलन था। सम्मेलन में क्या हुआ और आगे क्या किया जायेगा, यह मैं कल बताऊंगा। कल यानी 30 नवंबर को जब सम्मेलन ख़त्म हो रहा था तो इच्छा हुई कि पास ही तीर्थंकर महावीर की जन्म स्थली वैशाली है, वहाँ चला जाय। 22 वर्षों तक महावीर वैशाली में ही रहे। वैसे एक दावा यह है कि महावीर जी का जन्मस्थान लछुआड है जो बिहार के जमुई जिले में स्थित है। जो भी हो। ईसा पूर्व की बातों को सिद्ध करना बहुत कठिन है। जो भी साक्ष्य मिलते हैं, वे बहुत तथ्यात्मक नहीं होते। वैशाली के प्रति दूसरा आकर्षण बुद्ध की स्मृतियाँ हैं। बुद्ध का अंतिम प्रवचन वैशाली में ही हुआ था। लगभग तीन हज़ार वर्ष पहले की बात है। दो तीन सौ वर्षों पहले की बात तो मुश्किल से याद रहती है। महान कवि तुलसीदास की जन्मस्थली और जन्मतिथि पर मतभेद है। कोई बांदा जिले में मानता है तो कोई सूकरक्षेत्र में। लेकिन बुद्ध की स्मृतियाँ हमारी धरोहर हैं, उन्हें ज़रूर संजोना चाहिए। तीसरा आकर्षण अशोक स्तंभ का था, इसलिए वैशाली जाने की इच्छा प्रबल हो उठी। चौथा आकर्षण वैशाली की नगरवधू आम्रपाली थी। निर्णय लेने और टैक्सी के आने में थोड़ी देर हुई। तीन बजे के क़रीब टैक्सी चली। कुछ लोगों ने सुझाव दिया कि पाँच बजे सबकुछ बंद हो जाता है, इसलिए जाने से कोई फ़ायदा नहीं होगा। पर मैंने ठान लिया था कि कम से कम वैशाली की धरती पर कदम तो रख देना है।
मैं और अलका चल पड़े। जब वैशाली दोनों पहुँचे तो सूरज ढलने लगा था। टैक्सी वाले को भी बहुत अंदाज़ा नहीं था। यों पहले उसने कहा था कि सबकुछ खुला रहता है, मैं दिखा दूँगा। उसे भी पैसा कमाना होता है। झूठ की खेती तो महान आत्मा कर रही है तो हर दिन कमाने खाने वाले और क्या करे? वह पहले विश्व शांति स्तूप के पास ले गया। यह स्तूप द्वितीय विश्वयुद्ध में हीरोशिमा और नागासाकी में हुए नरसंहार के बाद बनाया गया है। इसका कुल उद्देश्य विश्व शांति की स्थापना के लिए प्रचार प्रसार करना है। इस स्तूप में चार दिशाओं में चार महात्मा बुद्ध की प्रतिमा है। वे ज्ञान मुद्रा में भी हैं, लेटे हुए भी और निर्वाण प्राप्त करने के क्षण का भी। विश्व शांति स्तूप के समक्ष बहुत बड़ी पुष्पकरणी है। इसकी खुदाई से महात्मा बुद्ध की स्मृतियों से संबंधित बहुत सारी चीजें मिली है जो एक संग्रहालय में मौजूद है। इस पुष्पकरणी की ऐतिहासिक महत्व है, लेकिन इतनी उपेक्षित है कि शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। पूरी पुष्पकरणी जलकुंभियों से भरी है और विश्व शांति स्तूप की देखरेख में भी लापरवाही दिखाई पड़ती है। इसके बाद संग्रहालय पहुँचे तो गेट लगाया जा रहा था। इसके पूर्व उस स्थल पर पहुँचे, जहाँ बुद्ध ने अंतिम प्रवचन दिया था। मन में भावनाओं का ज्वार उठता था। अलका ने पूछा कि यहाँ वेणुवन तो होना चाहिए। उसकी जिज्ञासा ग़लत नहीं थी, लेकिन जहाँ तहाँ वेणु तो मौजूद हैं, लेकिन वेणुवन नहीं है। कोल्हुआ में अशोक स्तंभ है, वहाँ पहुँचा ज़रूर, लेकिन दर्शन संभव नहीं था। यही हाल महावीर की जन्मस्थली का भी हुआ। जब लौट रहा था तो मन सोच रहा था कि एक बार और आना हो तो सबकुछ के दर्शन कर लिए जाय। देश में ही बहुत कुछ है, जिन्हें देखना ज़रूरी है। अंत में एक बात ज़रूर लगी कि मुख्यमंत्री नालंदा और राजगीर में जितने लगे रहे, उससे बहुत कम वैशाली में लगे। वैशाली की महत्ता उतनी तो ज़रूर है, जितनी नालंदा और राजगीर की है।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए The Dialogue उत्तरदायी नहीं है।)