डॉ योगेन्द्र
‘वाह ताज’ नहीं रहे। तबले पर खनकती उंगुलियां थम गईं। पिछले वर्ष पंडित शिव कुमार जब से गुजरे थे, वे उदास चल रहे थे। दोनों की जुगलबंदी जब बिछड़ गई तो आत्मा भी बिछड़ गई। आदमी की अंतरंगता अद्भुत होती है। हम हिंदू मुसलमान करते रहें। बड़ी-बड़ी कुर्सियों पर बैठकर झूठ बोलते रहे, मगर इंसानियत की राहें अलग होती हैं। जो प्यार बांटते हैं, वे भी गुज़रते हैं और जो नफ़रत के व्यापारी हैं, वे भी। रह जाती हैं कीर्तियाँ। कबीर, तुलसी, जायसी, सूरदास जैसे कवि रह गए। वे आज भी जीवित हैं अपनी कीर्तियों में, मगर उस समय के बादशाहों का क्या हुआ? बहुत हुआ तो इतिहास के विद्यार्थी पढ़ते हैं और नाक-भौंह सिकोड़ते हैं। जब बादशाह जीवित थे तो लोग काँपते थे। उनकी तूती बोलती थी और गये तो नामलेवा नहीं रह गया। कबीर तो फ़क़ीर थे। देह पर कपड़े की गट्ठर लिये गली-गली घूमते थे। उनसे कोई नहीं डरता था। बेटा कमाल तक उनकी आलोचना करता था, लेकिन वे टिके रहे। पूरे दमख़म के साथ। वाह ताज भी रहेंगे और पंडित शिव कुमार भी। उनकी दोस्ती मिसाल बन कर रहेगी।
ख़बरों में खबर यह है कि हम जो दुनिया बना रहे हैं, वह बहुतेरों के लिए रहने लायक़ नहीं है। ईडी की दबिश में एक दंपति ने फाँसी लगाने की घटना से उबर भी नहीं पाये थे कि कटिहार के युवक ने फाँसी लगा ली। वह क़र्ज़े में डुबा हुआ था। तीन फ़ाइनेंस कंपनियों और दो बैंक कर्मियों की धमकी से आहत होकर उसने मर जाना ही सही समझा। यह युग क़र्ज़खोरों का है। मगर युवक को मालूम नहीं था कि वह अंबानी टाइप क़र्ज़खोर नही है। वह बैंक निगल भी जायेगा तो उसके पीछे पात्रा प्रेस कांफ्रेंस करेगा। इस युवक पर तो सब थू थू करेगा। स्थानीय नेता भी उसे देखने नहीं जायेगा। दरअसल बैंक और फ़ाइनेंस कंपनियों के लोग कम बदमाश थोड़े होते हैं। वे फ़ोन करेंगे, मैसेज करेगा- लोन लीजिएगा। पहले क़र्ज़ लेना बुरी बात होती थी। अब शान की बात है। क़र्ज़ लेकर घी पीओ- दास मलूका कह गये हैं। मगर उस दास मलूका को इस युग का पता नहीं था। वरना वे ऐसा नहीं कहते।
जो भी आत्महत्या कर रहे हैं। वह सही नहीं है। उन्हें लड़ कर मरना चाहिए। बिना लड़े, हथियार डालना ठीक नहीं है। आत्महत्या समाज के बिखरने का लक्षण है। जो देश चला रहे हैं, उन्हें अंदाज़ा नहीं है कि कैसा देश बना रहे हैं। आत्महत्या करने वाले को भी पता नहीं है कि कैसे समाज में रह रहे हैं। जीने के लिए संघर्ष और संयम चाहिए। हर युग की अपनी चुनौतियाँ होती है। इस युग की भी है। चुनौतियों का सामना करना चाहिए। आत्महत्या कोई रास्ता नहीं है। मेरी उम्र छियासठ वर्ष है, लेकिन हर दिन संघर्ष के बारे में सोचता हूँ। न थका हूँ, न झुका हूँ। जीवन की अपनी कमियाँ है। बार-बार उससे जूझता हूँ और उससे निकलने का प्रयास करता हूँ। कभी-कभी निराशा आती है तो बाहर घूम आइए। हँसती प्रकृति को देखिए। झूमते पत्तों और खिलते फूलों को। रास्ते मिलेंगे। यहाँ कुछ भी स्थिर नहीं है तो समाज की यह दशा भी बदलेगी। जाकिर हुसैन और पंडित शिव कुमार से सीख लीजिए और आगे बढ़िए।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)