डॉ योगेन्द्र
31 जनवरी की रात बारह बजे के बाद भागलपुर में इतने पटाखे छूटते थे कि नींद खुल जाती थी। नव वर्ष के हंगामे शुरू हो जाते थे और सुबह तो लोग पिकनिक मनाने गाड़ी, ऑटो, पैदल, मोटर साइकिल से मनचाहे स्थान की ओर प्रस्थान करते थे। हाँ, वे हो हल्ला करना नहीं भूलते थे। बकरे, मछलियाँ और मुर्गे की तो शामत आ जाती थी। ज्यादातर इस पर टूट पड़ते थे। हाँ, भागलपुर में आयोजित नव वर्ष सांस्कृतिक मेला थोड़ी राहत पहुँचाता था। सांस्कृतिक कर्मी सैंडिस कंपाउंड में जमा होते। वहाँ नाटक, कविता पाठ भी होता और बहस के लिए वैचारिक विमर्श भी। बच्चों की चित्रकला प्रतियोगिता भी होती। लेकिन अब यह मेला कला केंद्र और लाजपत पार्क में सिमट गया है। सैंडिस कंपाउंड पर प्रशासन ने कब्जा कर लिया है और उसकी मोटी फीस रख दी गई है। रांची की हालत अलग है। रात में न पटाखे फूटे, न हंगामे हुए। सुबह जब रिम्स के कंपाउंड में टहलने गया तो वहाँ भी कुछ ऐसा महसूस नहीं हुआ कि नव वर्ष एकदम द्वार पर खड़ा हो। मछलियों की बिक्री भी सामान्य थी और मुर्गे भी कम हलाल हो रहे थे।
नव वर्ष में पूरा बिहार उमड़ जाता है। झारखंड उस तरह से नहीं उमड़ता। बिहार में क्या हिन्दू, क्या मुसलमान- सभी जश्न मनाने निकल पड़ते। झारखंड में भी जश्न है, मगर उसका सार्वजनिक अहसास नहीं है। ऐसा क्यों है? इसका कोई कारण तो होगा? मुझे लगता है कि बिहार की अपनी कोई संस्कृति नहीं है। जो भी है, वह गहरे ह्रदय तक नहीं है। बिखरी-बिखरी सी, टूटी-टूटी सी। आदिवासियों में एक सांस्कृतिक धारा है। गीत- नृत्य की। एक राग है। एक लय। निर्धनता है, लेकिन आपाधापी नहीं है। चेहरे पर अशांति नहीं है। एक कारण और हो सकता है कि तथाकथित विकास का उतना उच्छृंखल असर नहीं है। उस विकास का असर है, लेकिन अभी सब कुछ बिखरा नहीं है। 26 दिसंबर को मैंने रांची छोड़ी थी। अलवर तक गया था। अलवर और दिल्ली में ठंडक बहुत थी। यों उसे वहाँ की खबरें गरमाती रहती थीं। 31 की शाम को प्लेन से लौट आया। नव वर्ष आ गया है। कुछ लोग लिख रहे हैं कि यह नव वर्ष ईसाइयों का है। मजा यह है कि उनके ज्यादातर बच्चे ईसाइयों के स्कूल में पढ़ रहे हैं। शिक्षा और देश का काम ईसाई कैलेंडर से चलता है। देश में शासन अंग्रेजी से चलता है। राष्ट्रपति वायसराय के मकान में रहती है। वह मकान जिसमें 340 कमरे हैं और जहाँ से अंग्रेजों ने हिन्दुस्तान को पांव से कुचला। दिल्ली को देख कर तो नहीं लगता कि यहाँ अंग्रेजियत में कोई कमी आयी है। कुछ सरकारी संस्थानों को छोड़ कर सभी दुकानों और मकानों पर अंग्रेजी दर्ज है। अगर अंग्रेज यहाँ आते होंगे तो उन्हें जाना पहचाना शहर ही लगता होगा। दिल्ली में अभी चुनाव होने वाला है। जिस भी पार्टी ने अपने पोस्टर साटे, वे हिंदी में लिखे हुए थे। किसी के पोस्टर अंग्रेजी में नहीं हैं। यानी ये लोग वोट माँगेंगे भारतीय भाषा में और शासन चलायेंगे अंग्रेजी भाषा में। अंग्रेजी पढ़नी चाहिए। सीखनी चाहिए। लेकिन उसका वर्चस्व दिल दिमाग पर नहीं होना चाहिए। पर कबीर दास की उलटी बानी, बरसे कंबल, भीजै पानी।
(ये लेखक के निजी विचार हैं। लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है। इसके लिए Swaraj Khabar उत्तरदायी नहीं है।)