बाबा विजयेन्द्र
यह हमारा रील-युग है। इस युग में रील ही रियल है। इस रील ने हमें रियलिटी से दूर कर दिया है। जो आभासी है वही अब वास्तविक दिखता है। रील ही सत्य है, रील ही शिव है और रील ही सुन्दर है। किसी बात को फ़िल्मी बात कह कर हम अक्सर मज़ाक उड़ाते रहे हैं, पर अब ऐसा करना उचित नहीं होगा। अब सिनेमा भी सच है। सिनेमा, सच की जीत का आधार पुख्ता करता दिख रहा है। सिनेमा सत्याग्रह का आधार है। प्रधानमंत्री मोदी ने प्रधान मंत्री बनने के बाद शायद जो पहली फ़िल्म देखी है वह फ़िल्म है ‘दी साबरमती रिपोर्ट’।
वैसे पीएम से पहले ही जीएम अमित शाह ने साबरमती रिपोर्ट देख लिया था और इस फ़िल्म को सत्य का असत्य पर विजय बताया। मोदी ने भी खूब लिखा इस फ़िल्म के बारे में। विक्रांत मैसी और मोदी ने साथ-साथ फ़िल्म देखी। इन दोनों ने एक दूसरे के अभिनय की भूरी प्रशंसा भी क़ी होगी? इस अभिनयी दौर में सबकुछ संभव है। नेता और अभिनेता का कोई भेद इस ‘डांस ऑफ़ डेमोक्रेसी‘ में अब रह नहीं गया है। देश का जो माहौल है उससे देश की एकता खतरे में है। खतरे की चिंता करने की क्या जरुरत है सरकार को?
देश की एकता से ज्यादा जरूरी अब एकता कपूर हो गयी है।
फ़िल्म को कब रिलीज करना है इस वक्त का चयन काबिले तारीफ है। पटकथा लिखने वक्त ही रिलीज तिथि को भी शामिल कर लिया गया होगा। कितना स्क्रीपटेड है सब कुछ?
राम मंदिर आंदोलन के पहले धारावाहिक रामायण शुरू किया गया था। इस धारावाहिक के बहाने राम जन-जन तक फिर से जीवंत हो उठे। आडवाणी भी यात्रा के लिए उछल पड़े थे। कितना बड़ा नरसंहार हुआ उस आंदोलन में हम सब जानते हैं। संघ परिवार ने रामायण का जमकर फायदा उठाया। अभी तक राम मंदिर के प्रश्न और उसके कथित सियासी उत्तर हमारे जेहन में मौजूद हैं। राम आज भी सियासत के खेल की धुरी बने हुए हैं।
लेकिन इस ‘दी साबरमती रिपोर्ट‘ का क्या होगा? पीएम अपील कर रहे हैं कि इस फ़िल्म को देखना और जगह-जगह दिखानी चाहिए।
इस फ़िल्म में गोधरा की दर्दनाक कहानी है कि कैसे और क्या-क्या हुआ? 59 मौतें और उसकी प्रतिक्रिया में 1500 मौतें? मौत का बदला मौत! इस फ़िल्म में सरकार कहीं भी कठघरे में नहीं हैं। केवल पीत पत्रकारिता प्रश्नों के घेरे में है जिन्होंने सच्चाई को दबा कर रखा। वैसे चौदह में आने के बाद पहले यही काम करते, जो नहीं हुआ?
धन्य हैं एकता कपूर जिसने सच्चाई को सामने लाने की हिम्मत दिखाई। अब गोदी मीडिया क्या, गोदी सिनेमा ही हम सबको देखनी चाहिए।
फ़िल्म में हिंसा, घृणा और आक्रोश सब कुछ है। इस फ़िल्म में जबरदस्त थ्रील है। कोई भी दर्शक इस फ़िल्म को देखकर बजरंग दल में शामिल होना चाहेगा। यही तो संघ परिवार चाहता है। फ़िल्म का टीजर तो योगीजी ने कांवर यात्रा के दौरान ही जारी कर दिया था?
संभव हो तो इस फ़िल्म को संघ की शाखा पर भी दिखानी चाहिए। जो काम संघ के प्रचारक नहीं कर पाएंगे वो काम तो एकता कपूर कर दिखाएगी। चिंता है कि कँगना की तरह एकता कपूर को भी राष्ट्र माता न घोषित कर दे ये लोग? राष्ट्रमाता न सही लेकिन राज्य सभा में तो चली ही जाएगी राष्ट्र की यह नयी एकता!
दी साबरमती रिपोर्ट पर जितना भावुक मोदीजी हो रहे हैं उतनी भावुकता अगर साबरमती बेसिन में हुए किसान आंदोलन पर दिखाते, रिवर फ्रंट परियोजना की विफलता पर दिखाते तो अच्छा लगता। पर फेक चीजें अब सबको अच्छी लगने लगी हैं। किसी सत्यवादी की हिम्मत नहीं है कि सियासत की तरफ कोई झाँक भी ले। यह मिथ्याग्रह- मूवमेंट का नया दौर है, दौड़ते रहिये!
साबरमती बोलते ही साबरमती के संत द्वारा किये गए कमाल की याद आ जाती है। पर अब इनका कोई कमाल नहीं, बल्कि कमल ही कमल नजर आता है। साबरमती रिपोर्ट में गाँधी की करुणा, अहिंसा और सर्व धर्म सम्भाव की रिपोर्ट भी इस फ़िल्म के किसी सीन में होती तो अच्छा होता। साबरमती के महात्मा कब के विदा हो गए देखते देखते!
अब महात्मा नहीं बल्कि साबरमती नदी मोदी के नाम से जानी जाएगी। साबरमती के किनारे ऊँची-ऊँची अट्टालिकायें हैं। चमचमाती हुई परियोजनाएं हैं। बेलगाम कारपोरेट हैं। इस स्थिति में गाँधी जैसे नंगे फ़कीर को कौन याद करेगा?
आज चारों तरफ मनुष्यता संकट में हैं। इस स्थिति में एक ‘दी गाँधी रिपोर्ट‘ को नये सिरे से लिखने की जरुरत है।
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